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म्यारहवां सर्व १०३. येनोद्धृतं जिनमतं कुमतान्धकारात,
क्लुप्ता नयेन विनयेन पुनः प्रतिष्ठा । उन्मूलिता शिथिलता वतिनां प्रयोगात्, प्रस्फोरिता जिनमताङ्कितवैजयन्ती ।। ___ 'उन्होंने कुदर्शन रूप अन्धकार से जिनमत का उद्धार कर न्याय एवं विनय से पुनः प्रभु के मार्ग की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने शुद्ध प्रयोगों से मुनियों में व्याप्त शिथिलता का उन्मूलन कर जिनमत से चिह्नित ध्वज.को फहराया है।' १०४. यर्लोकरञ्जनकृते न कृतः प्रयत्नो,
नो राष्ट्रराज्यकसमाजमतार्थनीत्य। नो नामकोतिपदतैहिकऋद्धिसिद्ध, भ्रष्टः प्रदर्शनसमन्वयहेतवे नो॥
'उन्होंने लोकरञ्जन के लिए कोई भी प्रयत्न नहीं किया, न राष्ट्रराज्य-समाज एवं अर्थनीति के लिए ही कुछ किया, न नाम, कीर्ति, पद तथा ऐहिक ऋद्धि-सिद्धि के लिए कुछ किया और न भ्रष्टाचारियों के साथ दर्शन के समन्वय का ही प्रयत्न किया।'
१०५. कर्तुर्यतोऽघमिहकारयितुस्तथाऽनु
मन्तुस्ततस्त्रिकरणत्रिकयोगरूपा । साक्षात् परीक्षितुमियं सदसन्न भावान् संस्थापिता स्फुटतरा कषपट्टिकैव ॥
'उन्होंने मनुष्यों के सद्-असद् भावों की परीक्षा के लिए एक स्पष्ट कसौटी स्थापित की। उन्होंने कहा-हिंसा आदि करने वाले को पापबंध होता है तो हिंसा आदि कराने वाले तथा उसका अनुमोदन करने वाले के भी पापबंध होगा। यह त्रिकरण-त्रियोगरूप कषोपल है।' १०६. चन्द्राय चारचलचञ्चुचयो यथैव,
यच्चक्रवाकनिचयो रवयेऽन्ववायः । धाराधराय चलचातकचक्रचित्तं, यस्मै प्रतीक्षणपरं त्रिजगत् तथाऽऽसीत् ॥
'हे अमात्य महोदय ! जैसे चञ्चल चकवे चन्द्रमा के लिए एवं चक्रवाल समूह सूर्य के लिए तथा चातक मेघ की धारा के लिए लालायित रहते हैं वैसे ही आचार्य भिक्षु के लिए तीन लोक के प्राणियों का चित्त प्रतिक्षण लालायित रहता है ।'