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ग्यारहवां सर्ग
२१ . 'जो वीतराग की तरह शांत रस के मूर्तिमान् अंग, पुण्डरीक गणधर की तरह श्रेष्ठ तीर्थ की पूजा करने वाले, सदा समस्त कृत्यों को भावपूर्वक करने वाले तथा इस काल में तो पुण्य रूप गुणोत्कर्षक के पराग हैं। ..."
९६. ऊढो न योऽन्धपरिवर्तनताप्रवाहे,
पक्षी न यश्चरितहीनयदेकतायाः। यो वीरवाक्यमकरन्दमदान्धमत्तो, नान्यप्रभावविषयोधमतानुयायो ।।
'वे अन्ध-परिवर्तन के प्रवाह में नहीं बहते तथा चरित्रहीन एकता के पक्षपाती नहीं हैं। वे वीतराग के वाक्य रूप मकरन्द पीने के लिए मतवाले हैं। वे अन्य प्रभावों में तथा अन्य विषयों में न तो प्रयत्नशील है और न अन्य प्रवृत्ति करने वाले हैं।'
९७. यो नो नतः प्रतिहतो गुरुकष्टकोटया,
यो नावरुद्ध इव धीरसमीरवीरः।" यः केशरीव भयमुग भुवने विहारी, यो व्योमवद् विकृतिभिर्वत निर्विकारी ॥
___ 'वे द्रव्य गुरु द्वारा प्रदत्त कष्टों के समक्ष न तो नत ही हुए और न प्रतिहत ही हुए । वे धीर पवनवीर की भांति कभी अवरुद्ध नहीं हुए। वे सिंह की भांति भययुक्त होकर संसार में विचरने वाले और विकृतियों से अलिप्त हैं, आकाश की तरह निर्विकारी हैं ।'
९८. यो वीरवानिकषपट्टतटे जघर्ष,
यो वीरसवतशिताऽसिरयरकृन्तत् । यो वीरतापतपनेऽगलदूर्ध्वदेहो, यो वीरनामबलिदानपरः सदासीत् ॥
'उन्होंने अर्हत् वाणी रूप निकषपट्ट पर अपने आपको घिसा है तथा महावीर के सव्रतों रूप तीखी खड्गधारा से स्वयं का छेदन किया है। वे वीर प्रभु के ताप रूप तपन में खड़े-खड़े अपने आपको गलाया है तथा वीर प्रभु के नाम पर न्यौछावर होने में तत्पर हैं।'
१९. योऽर्हत्पवित्रसमये श्रुतकेवलीव,
वादी जिनाधिपतिवादिमुनीन्द्रदेश्यः । आचारपालनविधौ गुरुगोतमर्षिरेवंयुगीनमुनिपेषु युगप्रधानम् ॥