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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् __. उस समय जोधपुर के सचिव फतेहचन्द्रजी उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने श्रावकों से पूछा-'आप स्थानक में पौषध न कर यहां पौषध कर रहे हैं, इसका क्या कारण है ? तब वे श्रावक बोले-'हे अमात्यवर्य ! हमारे गुरु आधाकर्मी स्थानक को छोड़कर संघ से अलग हो गये हैं ।' तब अमात्य महोदय ने पुनः पूछा-'वे आपके गुरु कैसे हैं, यह मुझे बतलाएं ।' ९२. ब्रूते च तेष्वन्यतरोऽतिदक्षो, गुणानुरागी गुणपक्षपाती । किं पृच्छ्यते यो महिमकपात्रं, लोकोत्तरो लोकललामलोभी ॥
अमात्य के पूछने पर उन श्रावकों में जो अतिनिपुण, गुणानुरागी और गुणपक्षपाती श्रावक था, वह वोला-'महाशय ! आप क्या पूछ रहे हैं ? वे हमारे गुरु महिमा के एकमात्र पात्र, लोक में उत्कृष्ट तथा लोक में जो ललामभूत हैं उनको भी लुभाने वाले हैं । ९३. यो नाभिनन्दन इवाखिलविश्वतारी,
यो वीतरागवृषनीतिविकाशकारी। यो दुस्तपाकुलितशान्तसुधाप्रसारी,
यः सत्पथप्रपतयालुसहायकारी ॥ ___ हमारे वे गुरु भगवान् ऋषभ के समान अखिल विश्व को तारने वाले, वीतराग की धर्मनीति का विकास करने वाले, संसार के ताप से आकुलित व्यक्तियों में शान्तसुधारस का प्रसार करने वाले तथा सत्पथ से गिरने वालों का उद्धार करने वाले हैं।'
९४. यो वासुदेव इव नो निजपृष्ठदर्शी,
यो न्यायमुक्तनिवहात् सुवियोगदर्शी । यः सर्वगास्खलितराजपथप्रदर्शी, यः सत्यसत्यकथकोऽमयदीर्वदर्शी ॥
'वे वासुदेव की तरह संकट में भी कभी पीठ दिखाने वाले नहीं हैं । वे न्यायच्युत व्यक्तियों के साथी नहीं हैं। वे वीतराग के मार्ग से स्खलित व्यक्तियों को राजपथ दिखलाने वाले हैं। वे सत्यभाषी, अभय तथा दीर्घदर्शी हैं।' ९५. यो वीतराग इव शान्तशरीरभागः,
श्रीपुण्डरीक इव यो वरतीर्थयागः । यो भावपूर्वकनिरन्तरसद्विभागः, कालेऽत्र पुण्यपरभागपुरः परागः॥ १. इतः प्रारभ्य ११७ श्लोकपर्यन्तं सर्वे श्लोकाः वसन्ततिलकाछन्दसि
प्रतिबद्धाः सन्ति ।