________________
ग्यारहवां सर्य
२५
१११. पुत्री न पुत्र इव संशयवञ्चनाकृद्,
घंटामणिप्रभदलद्वयगाऽस्फुटा च । स्वस्वप्रतीष्ठवितयाशयपोषिका नो, भाषा लिपिः प्रतिकृतिः स्थितिरहित, यस्य ।
'आचार्य भिक्षु की भाषा, लिपि, प्रतिकृति तथा स्थिति अत्यन्त स्पष्ट है। उनकी भाषा 'पुत्री न पुत्र' जैसी संशयात्मक तथा वंचनापूर्ण, 'घंटामणि' न्याय के समान इधर-उधर जाने वाली तथा अस्फुट और अपने-अपने प्रतिष्ठित असत्य विचारों का पोषण करने वाली नहीं है।'
११२. धैर्यप्रशांतिमतिशक्तिविभूतिभाजि,
यस्मिन् जिनेन्द्रवचनामृतसारसारः। आपादकण्ठपरिपूर्णभृतो विरक्तिभक्त्यादिभिः सह यथा गगनप्रदेशाः ॥
'वे महापुरुष धैर्य, शांति, मति, शक्ति और विभूति को धारण करने वाले हैं। उनमें जिनेन्द्र वचनों के अमृत का सार संगृहीत है । वे विरक्ति और भक्ति से आपादकंठ वैसे ही भरे पडे हैं जैसे ब्रह्मांड में आकाश प्रदेश ।'
११३. मार्ग व्यनक्ति निरवद्यमिवांशुमाली,
स्वासूनिवाऽखिलपराङ्गवतो न हन्ति । यो निस्पृहो जगति सिद्ध इवातिशुद्धो, बुद्धोऽतिबुद्ध इव बोधितबुद्धबुद्धः॥
'जैसे सूर्य मार्ग दिखाता है वैसे ही वे गुरु निरवद्य धर्म का मार्ग दिखलाने वाले हैं एवं अपने प्राणों के समान समस्त प्राणों को जानते हुए वे किसी की हिसा नहीं करते । वे जगत में सिद्धों की भांति निस्पृह एवं अत्यंत पवित्र तथा विशिष्ट ज्ञानी एवं प्रबुद्ध व्यक्तियों को भी बोध देने वाले हैं।'
११४. सर्वाऽसुमत्सु भगवानिव तुल्यदर्शी,
सङ्ग कुसङ्गमिव यस्त्यजति प्रशांतः। यः पोतवत्तरति तारयते परांश्च, योऽर्हगिरां प्रवदते गणभूद्वदेव ॥
'वे भगवान की तरह प्राणीमात्र पर समदृष्टि रखने वाले, प्रशांतचित्त से संसार के मोहमय संग को कुसंग की भांति त्यागने वाले, पोत की . तरह तैरने-तैराने वाले तथा गणधर की तरह अर्हद् वाणी का कथन करने वाले हैं।'