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त्रयोदशः सर्गः
१००. खरकरादितमानवमण्डलं, विलसितं मुनिपेन कृतं गिरा।
कुमुदिनीपतिनेव सकौमुदी, नवसुधा वसुधा क्रियते न किम् ॥
मिथ्यात्व रूप तीक्ष्ण करों से पीड़ित मानवमण्डल को स्वामीजी ने अपनी वाणी द्वारा शांत कर दिया । क्या चन्द्रमा अपनी चन्द्रिका से सारी पृथ्वी को चन्द्रिकामय एवं नव सुधामय नहीं बना देता ? १०१. जलधरैः सुजलैः सुवनस्थलीव ऋषिभिः सुकृतामृतसेकतः ।
प्रमुदिता मृदुमानवमेदिनी, गतरसा तरसा सरसाऽभवत् ॥
जैसे जलधर के सुजल से समस्त वनस्थली प्रमुदित हो उठती है, वैसे ही जो मृदु मानवमेदिनी बल एवं वेग से नीरस हो गई थी वह महामुनि के धर्मोपदेश रूप अमृत के सिंचन से पुनः सरस हो गई। १०२. तदिह चुम्बकवत् प्रतिकर्षिता, नयपथे नयिनो भविनो जनाः ।
उपकृतेर्भरतः प्रणमन्ति तं, प्रशमिनं शमिन' शमिन' मुदा ॥
इसीलिये तो चुम्बक की तरह आकर्षित होते हुए भव्य प्राणी न्यायमार्ग में आने लगे और उपकार के भार से उन प्रशमवान् एवं आत्मिक सुखों के स्वामी मुनिराज को सहर्ष प्रणाम करने लगे।
१०३. अगणिता जनता प्रतिबोधिता, मुकुलिता कुलिता ललिता कृता ।
सफलता मिलिता महती प्रभोः, क्षणविलक्षणलक्षणलक्षणा ॥
ऐसे उपदेश के बल से आचार्य भिक्षु ने अगणित जनता को प्रतिबोध दिया एवं मुकलित तश्रा आकुलित जनता को पुनः विकस्वर किया । इस प्रकार स्वामीजी को आशातीत एवं महती सफलता मिली। १०४. प्रलपिविद्विडुपद्रविनिन्दका, अपि च यस्य बभूवुरुपासकाः।
उपकृतेरनृणीमवितुं स्वयं, प्रसभया सभया समया सदा ॥
जो व्यक्ति प्रलापी थे, द्वेषी थे, उपद्रवकारी और निंदा करने वाले थे, वे भी आचार्य भिक्षु के उपासक बन गए तथा भिक्षु के उपकार का ऋण चुकाने के लिए लोगों के झुंड के झुंड उपासना में आने लगे। १०५. सहनयं समयोत्तमसाक्षिकं, दिशति धर्ममसौ जिनपोदितम् ।
श्रुतिपुटेन पिबन्ति सुधोपम, समितयो'ऽमितयोऽमितयोनयः॥ १. मुनि सुखस्य स्वामिनं वा। २. सूर्यं वा । ३. समितिः-जनता का समूह । ४. अमितयोनयः-नाना प्रकार की।