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त्रयोदशः सर्गः ९०. जिनयथार्थमतप्रविभावनान्, न च परः परमः प्रथमः पयः।
विदितमेव समं किमिहोद्यतेऽननृतया नृतयाऽनृतयाचिते !॥
'हे देवों से एवं नरों से पूजित सत्यमूर्ति महामुने ! हम क्या कहें ? आप सब जानते ही हैं कि जिनमत की यथार्थ प्रभावना के अतिरिक्त दूसरा कोई श्रेष्ठ एवं प्रथम श्रेणी का मार्ग नहीं है।'
९१. कुमतिक्लप्तकुहेतुकुतर्कणा, विकटकोटिगलाधितचन्द्रतः।
भविजनान् पततः परिरक्षितुं, चतुरताऽऽतुरताऽऽतुरता त्वयि ॥
'पूज्यवर ! आज कुमति द्वारा रचित कुहेतु और कुतर्क के करोड़ों गम - विचार-विकल्प प्रचलित हैं। उनके गलहत्थों से जो भव्य प्राणियों का पतन हो रहा है उन प्राणियों को पतन से बचाने के लिए आप में ही निपुणता है, उत्साह है एवं प्रबल आतुरता है।'
९२. शुभविवेचितकर्मसमुद्यता, विचलिता न भवन्ति भवादृशाः ।
इह खलाः खलता खलतायिता, न महताऽमहताः प्रतिपक्षिणः ।। ___ शुभ एवं विवेचित कार्यों में उद्यत आप जैसे महापुरुष कभी विचलित नहीं होते । दुःख अपनी दुष्टता से आकाशलता की भांति व्यर्थ हो जाते हैं । महान् व्यक्तियों के प्रतिपक्षी प्रतिहत हो जाते हैं ।
९३. यदि च कोप्यपसव्यविधानतस्तव समीपयियास्ववरोधकः ।
इह परत्र च तस्य विनिश्चयादधिगमं धिगमङ्गलकारिणः॥
यदि कोई प्रतिकूल विचारों से आपके पास आते हुए का अवरोध करते हैं तो निश्चय ही ऐसे अमंगलकारी पुरुषों के विचार इह-परभव में धिक्कार को प्राप्त होते हैं।
९४. गुरुजनः परिकल्पित आग्रहो, यदि तिरस्कृतितां भवतो गमी ।
क्व च तदा गुरुगौरवगौरवं, भुवि पदं विपदन्तकरं धरेत् ॥
'हे मुनि पुङ्गव ! यदि बड़े संतों का किया हुआ आग्रह आपसे तिरस्कार को प्राप्त होता है तो फिर समस्त विपदाओं का अन्त करने वाला गुरु-गौरव अपना पर कहां टिका पाएगा ?'
१. आतुरता-स्वरायां, सम्भ्रमे, व्याकुलतायां, व्यग्रतायां, उत्सुकतायां, .. उत्कंठितायां, दुःखितायां च ।