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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् तब स्वामीजी जिनेश्वर देव द्वारा प्ररूपित न्याययुक्त एवं शास्त्रसम्मत धर्म का उपदेश देने लगे । नाना प्रकार के लोग समूहरूप में आते और उस सुधातुल्य धर्म का अपने श्रुतिपुटों से पान करते। १०६. भवति यत्र वधादिविवर्जना, विरतिवृद्धिरुतात्मिकलामता ।
स्फुटतरं वरसंवरनिर्जरासुसुकृतं सुकृतं प्रतिपाद्यते ॥
जिसमें हिंसा आदि की विवर्जना है, जिसमें व्रत की वृद्धि एवं आत्मिक लाभ है, जो संवर-निर्जरा का ही कार्य हैं- ऐसे धर्म का जनता के सामने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करने लगे। १०७. उपचितिविततिः कृतकल्पनात्ययनतोतिवचस्वियशस्विनः ।
यतिपतेः सदनान्यनुयायिनां, निवसथे वसथे शतशोऽभवन् ।
उन वाग्पटु एवं यशस्वी महामुनि द्वारा की हुई कल्पना से भी आशातीत धर्म की पुष्टि एवं विस्तार हुआ, जिससे गांव-गांव में मुनिपति के अनुयायियों के सैकड़ों घर बन गए। १०८. समुक्योमुदध्योऽमुदयोधनो, लहरितोऽहरितो हरितां ध्वजः ।
अनुगता मुनयोऽमुनयोप्यतो, रुरुचिरे रुचिरेऽचिरेङ्गिनि ॥
उन चरित्राधिपति का सम्यक् प्रकार से उदित होने वाला प्रमोद हर्ष को उत्पन्न करने वाला एवं अप्रमोद का नाश करने के लिये लोहघन के समान था। उज्ज्वल विजयी ध्वज दशों दिशाओं में लहराने लगा, जिससे मुनिपति के अनुयायी साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाएं स्वपक्ष के एवं परपक्ष के लोगों में अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुए।
श्रीनामेयजिनेन्द्रकारमकरोदर्मप्रतिष्ठां पुनर्, यः सत्यग्रहणाग्रही सहनयंराचार्यभिक्षुर्महान् । तसिद्धान्तरतेन चाररचिते श्रीनथमल्लर्षिणा, वृत्ते भिक्षुगुरोस्त्रयोदशमितः सर्गो बभूवानसौ ॥
श्रीनत्यमल्लर्षिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये जिनस्तुतिव्याजात् तात्कालिकजैनधर्म-स्थित्यवलोकनं तपोनुष्ठानकरणं मुनिद्वयप्रबोधेन तपःस्थगनं जनप्रतिबोधनं महती सफलता-इत्येतत्
प्रतिपादकः त्रयोदशः सर्गः।