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भोभिक्षमहाकाव्य
१०७. यस्माद् बभूव निरवदयाप्रधारा,
हमाचलात् त्रिदशर्शवलिनीव विश्व । यस्मात् पुनः प्रकटितः प्रमाप्रभावः,
सूर्याद् यथा दिशि दिशि प्रसरप्रकाशः ॥ . ...... “इनसे इस संसार में निरवद्य दया की धारा वैसे ही प्रवाहित हुई जैसे हिमवत् पर्वत से गंगा और पुनः प्रभु वाणी का वैसे ही उद्योत हुआ जैसे सूर्य से प्रत्येक दिशा में प्रसत होने वाले प्रकाश का उद्योत ।'
१०८. यस्य प्रतापपुरतः कुमताः प्रणष्टा,
मार्तण्डमण्डलमुखादिव धूर्तघूकाः । प्रौन्मादिवादिनिवहाः प्रपलायमाना,
वन्या यथा मृगमुखा नखरायुधानात् ॥ .: 'उनके प्रताप के सन्मुख कुदर्शन वैसे ही नष्ट हो गये जैसे सूर्य के सन्मुख धूर्त घूक तथा उनके उन्मत्त बादीगण भी इनके नाम-श्रवण से मानो वैसे ही पलायन कर गए जैसे सिंह से वनमृग।'
१०९. श्रद्धालुता जिनगिरां गुरुगोतमीया,
वृत्तिः क्रियास्वभिरुचिर्गुरुगोतमीया । श्रोतृत्वपालनविधा गुरुगोतमीया,
बोधित्वभक्तिरपि निस्तुलगोतमीया ॥ । 'जिनवचन के प्रति श्रद्धालुता, क्रिया-सम्यक् आचरण की वृत्ति एवं अभिरुचि, अर्हत् वाणी का श्रवण और पालन तथा बोधि के प्रति भक्ति-ये सारो क्रियाएं आचार्य भिक्ष में गुरु गौतम गणधर के सदृश हैं।'
११०. वक्षस्थलं सदतिशायिपराक्रमाप्तं,
वीरेण विस्मृतमिति प्रथने न भीतः। न्यायस्य यस्य परमावधिरीक्षणीयो, न्यायो हि जीवनधनं महतां महत्त्वम् ॥
'उनका वक्षस्थल अतिशय पराक्रमशाली था, इसलिए उन्होंने यह कहने में भय नहीं रखा कि भगवान महावीर (छद्मस्थ अवस्था में) एक बार चूका गए थे। यह उनके न्याय की पराकाष्ठा है। महापुरुषों का जीवनधन और महत्व न्याय ही तो है।'