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ग्यारहवां सर्ग ८६. एष स्वपक्षः प्रतिपक्ष एष, इदं हि नो मानमिदं तदीयम् । ' कि सङ्गतं किं नहि सङ्गतं तद्, विवेचनीयं पटुभिर्भवद्भिः ॥
वे लोगों को समझाते हुए कहते-'यह अपना पक्ष है और यह उनका (भिक्षु का) पक्ष है । ये अपने प्रमाण हैं और ये उनके प्रमाण हैं। अब कौनसा संगत है और कौनसा विसंगत, इसका विवेचन आप निपुण लोग ही कर सकते हैं।'
८७. उन्मुक्तकण्ठः श्रुतसर्वभावः, समुद्यते तैः प्रतिबोधबुद्धः । न्यायेन युक्त्याऽगमनैगमाभ्यां, सत्याञ्चितं भैक्षवसंविधानम् ॥
सारे तथ्यों को सुनकर, श्रावक भैरोंजी के प्रतिबोध से प्रतिबुद्ध हो पौरवासी लोगों ने उन्मुक्त भावों से कहा-'आचार्य भिक्षु का पक्ष न्यायो- . चित, युक्तियुक्त, आगम और तर्क से उपेत तथा प्रामाणिक है।'
८८. ततोऽनुयुङ्क्तेऽथ किमय कार्य, वदन्ति सर्वे सुतरां हिताय । सम्बन्धिनो नो पितरो न बन्धुरभ्युद्गता ये गुरवोऽस्मदीयाः ॥
फिर भैरोंजी ने पूछा-'अब मुझे क्या करना चाहिए ?' सभी ने हित से प्रेरित होकर कहा-'जिनको हमने गुरु माना है, वे न हमारे संबंधी हैं, न माता-पिता हैं, न बन्धु हैं। वे हमारे कोई सगे नहीं हैं।'
८९. गुणैर्युतास्ते गुरवोऽभिमान्याः, गुणविहीनाः परिवर्जनीयाः।
सोन्वेषकः पौरजनः समस्तंभिक्षु गुरुं स्वीकृतवान् प्रसन्नः ॥
__ जो गुणयुक्त हों, वे ही गुरु के रूप में मान्य हैं । जो गुणविहीन हों, वे त्याज्य हैं । सत्य शोधक भैरोंजी ने सभी पौरजनों के साथ आचार्य भिक्षु को गुरुरूप में स्वीकार कर लिया। .
९०. इतः पुरे जोधपुरे कदाचित्, संवत्सरोपर्वदिने विशेषात् । । श्राद्धाः कियन्तो विपणौ प्रवीणास्तिष्ठन्ति सत्पौषधमावधानाः ॥
इधर जोधपुर शहर में कदाचित् संवत्सरी या किसी विशेष पर्व दिन पर कतिपय श्रावक बाजार की दुकान में पौषध व्रत स्वीकार कर धर्माराधना कर रहे थे।
९१. गच्छत्फतेचन्द्रसुमन्त्रिपृष्टा, ब्रुयुर्गुरुः स्थानकमत्यजन् मे।
तत्रोऽत्र संश्रुत्य पुनः पप्रच्छ, कीदृक् स साधुः प्रतिवाच्यतां मे ॥