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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'ऐसा मत कहना कि मैं आपके कहने से श्रद्धा स्वीकार करता हूं। यह आभार का भार मेरे पर मत डालना । यदि मेरा कथन शास्त्रसम्मत है तो शीघ्रता से उसे स्वीकार करो।'
८१. तेनाभ्यधायीश्वर ! साम्प्रतं सा, जिघृक्ष्यते नो मयकाऽत्र हेतुः। . एकाक्यहं चेत् समुपाददे तामेको हि तिष्ठामि न संशयोत्र ॥ .
श्रावक भैरोंजी बोले-'भगवन् ! आपकी श्रद्धा सम्यक है। मैं उसकी सत्यता के लिए कोई हेतु नहीं चाहता । यदि मैं अकेला ही इस श्रद्धान को स्वीकार करता हूं तो फिर मैं अकेला ही रह जाऊंगा, इसमें कोई संदेह
नहीं है।'
२२. प्रबोध्य सर्वान् सुलभेन साकमादित्सुरेवास्मि भवत्सुमार्गम् । __स्वामी समाकर्ण्य तदीयभावान्, प्रोचे यथेष्टं कुरु भव्यभव्य ! ॥
__'अतः मैं चाहता हूं कि सभी पौरजनों को सहजता से समझाकर, उन सबके साथ ही आपके मार्ग को स्वीकार करूं ।' आचार्य भिक्षु ने उनके भावों को सुनकर कहा-'भव्य वत्स ! जैसा चाहो वैसा करो।'
५३. इतो ब्रजन्तं प्रतिवासरं तं, पृच्छन्ति पौराः कथमेति तत्र। भिक्षोः ससीमं गमनं त्वदीयं, स्वसम्प्रदायेऽतिसमीक्षणीयम् ॥
- अब वे प्रतिदिन भिक्षु के पास आने लगे। उस समय रास्ते में "पौरजन पूछते-'आप वहां क्यों जाते हैं ? आपका भिक्षु के पास जाना-आना अपने सम्प्रदाय-स्थानकवासी परम्परा में एक आलोच्य विषय बन रहा है।'
१४. विधीयते किं प्रतिपाद्यतां तत्, ततः समूहीकृतधामिकेषु ॥ .. समाधिना वादविवादयुक्त्या, प्रयत्यते तद् गदितुं स सज्जः ॥
वे कहते-'आप बताएं । अब मैं क्या करूं?' इतने में वहां लोगों की भीड़ लग जाती। तब वे शान्तभाव से, तर्क-वितर्क से उनको समझाने का प्रयत्न करते।
। ८५.ये ये समालोचितचितास्तस्ते ते समस्ता विषयाः क्रमेण ।
संरक्षितास्तेन विलक्षणेन, पृथक् पृथक् साधुतया विभज्य ॥
जो-जो विषय उन्होंने आचार्य भिक्ष से चर्चित कर समझ लिये थे वे सब विषय उनके स्मृतिकोश में सुरक्षित थे। उन सबका उन्होंने सम्यक् विभाजन कर रखा था।