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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
भक्षु गुणों के ही भिक्षुक थे । वे परम आत्मयोगी थे, विरक्त थे, इसीलिये ही तो सर्वत्र शोभायमान हो रहे थे । साथ वाले सभी संत वैसे ही समान शील - आचार वाले तथा सुकृत की आराधना में ही तल्लीन रहने वाले थे ।
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७०. दिनोदये संयमसौरभाढ्याः, सज्झोलिका हस्तगृहीतपात्राः । भिक्षामटन्तः परितो भ्रमन्तः, ईर्योपयुक्ता नियमोपयुक्ताः ॥
सूर्योदय हुआ । संयम के सौरभ से युक्त वे मुनिगण हाथ में पात्रों की झोली लेकर भिक्षा के लिए गांव में घूमने लगे । वे अपने नियमों से प्रतिबद्ध तथा ईर्यासमिति से संयुक्त होकर गांव में चारों ओर घूम रहे थे ।
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७१. श्रीशोभजीश्रावकतातभ रोजीनामतः श्रीरघुनाथभक्तः ।
आसन्न भव्यः सुलभप्रबोधी, सङ्घकमुख्यः प्रथितः प्रभावी ॥
उसी गांव में शोभजी श्रावक के पिता भैरोंजी रहते थे । वे आचार्य रघुनाथ जी के भक्त, स्थानकवासी संघ के प्रमुख और प्रभावी व्यक्ति थे ।. वे सुलभ बोधि और निकट में ही मोक्षगामी से प्रतीत होते थे ।
७२. निरीक्षितास्तेन त एव सन्तो, जीवन्त एते बहुविस्मितोऽभूत् ।
प्रभावितोऽसौ द्विषतां वरोपि, कथंकथञ्चित् सविधं समेतः ॥
भैरोंजी ने देखा कि ये वे ही संतगण हैं, जिनको अंधेरी ओरी का स्थान रहने के लिए निर्दिष्ट किया था । उन्हें जीवित देखकर वे आश्चर्यान्वित हुए । अत्यन्त विरोधी होते हुए भी वे संतों के इस तपस्तेज से प्रभावित हुए और ज्यों-त्यों उनके निकट आए ।
७३. भिक्षविचारामृतपानतृप्तो,
लालायितो भूल्ललिताशयेन । तवित विविधैः प्रकारैः, प्रश्नोत्तराणि प्रविधातुमुत्कः ॥
वे आचार्य भिक्षु के विचार रूपी अमृत का पानकर तृप्त हो गए । उनके विचार पवित्र बने और वे विविध प्रकार से आचार्य भिक्षु के साथ तर्क-वितर्क तथा प्रश्नोत्तर करने के लिए लालायित हो उठे ।
७४. यन्तं तमक्ष्याखिलपौरमर्त्याः, पृच्छन्ति धीमन् ! कथमेति तत्र । भिक्षोः समीपे गमनं स्वदीयं, समाजगह्यं लगतीति चिन्त्यम् ॥
नगरवासी लोगों ने देखा कि भैरोंजी आचार्य भिक्षु के पास आ जा रहे हैं। उन्होंने पूछा- आप वहां क्यों जाते हैं ? भिक्षु के पास आपका जाना समाज में गर्हणीय माना जाएगा, यह आप स्वयं सोचें ।