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ग्यारहवां सर्ग
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७५., वीरं प्रभु यः स्खलितं प्रवक्ता, शैथिल्यशीलं च गुरु स्वकीयम् । ततोऽस्य पारधै गमनं नितान्तं, न शोभनं प्रत्युत्त मर्मवेधि ॥
लोगों ने कहा- 'जो व्यक्ति भगवान् महावीर को 'चूका' (स्खलित) और अपने गुरु को शिथिलाचारी कहता है, उसके पास जाना नितान्त अशोभनीय ही नहीं, प्रत्युत मर्मवेधी भी होगा।
७६. तथापि रुखो न विरोधकृद्भिट्टङ्कितॉस्तान् प्रतिवक्ति बुद्धधा। ज्ञायेत किं तत्र गति विनाऽत, आयाति भिक्षोः निकटं विशङ्कः ॥
विरोधियों ने उन्हें रोकने का भरसक प्रयास किया, पर वे नहीं रुके। उन्होंने अपनी बुद्धि से उनके तर्कों का प्रत्युत्तर देते हुए कहा-'भिक्षु के पास गए बिना सत्य-असत्य कैसे जाना जा सकेगा?' और वे निक होकर आचार्य भिक्षु के पास आने लगे।
७७. जिज्ञासितां तस्य विलोक्य मिक्षः, प्रसन्नचेताः सुप्रसन्नमुद्रः।
परोपकारकपरायणत्वाज, जिनेन्द्रभक्त्याह तमुत्सुकं सः॥
७८. यथा यथा पृच्छति भिक्षुभिक्षोः, प्रत्युत्तराणि प्रशमोत्तराणि ॥
निशम्य सोल्लासितमानसः स, बुद्धः प्रबुद्धः प्रतिभाषमाणः॥
आचार्य भिक्षु प्रसन्नचित्त और सुप्रसन्नमुद्रा में थे। - भैसेंजी सनके पास आए । आचार्य भिक्षु ने उनकी जिज्ञासायत्ति को पढा। वे परोपकारपरायण और जिनेन्द्रभक्ति से ओतप्रोत थे। आगन्तुक की उत्सुकता को ध्यान में रखकर वे जो जो पूछते रहे, आचार्य भिक्षु ने शान्तभाव से उनके उत्तर दिये । उत्तरों को सुनकर उनका मन उल्लसित हुआ। उन्होंने तत्त्व को जाना,, प्रबुद्ध हुए और बोले
७९. सत्यं मतं श्रीजिनसम्मतं ते, श्रद्धाऽपि सत्या मयि सन्निविष्टा।
ग्राह्या ततोऽजल्पि मुनीश्वरेण, निर्मीयते किं समयातिबाहः ॥ ___ 'श्री जिनेश्वर देव का मत सत्य है । भापका श्रद्धान भी सत्य है। वह मेरे अन्तर् में घर कर गया है।' आचार्य भिक्षु तब चोले-'श्रावकजी! यदि ऐसा लग रहा है तो श्रद्धा स्वीकार करो । समय को क्यों गंवा रहे हो।'
८०. मन्ये त्वदुक्तादिति मस्तकेष्वाऽभारातिभारो नहि रोहणीयः।
भवेन् मदुक्तं यदि शास्त्रसिद्धं, तदा वरेणाद्रियतामिदानीम् ॥