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________________ १८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'ऐसा मत कहना कि मैं आपके कहने से श्रद्धा स्वीकार करता हूं। यह आभार का भार मेरे पर मत डालना । यदि मेरा कथन शास्त्रसम्मत है तो शीघ्रता से उसे स्वीकार करो।' ८१. तेनाभ्यधायीश्वर ! साम्प्रतं सा, जिघृक्ष्यते नो मयकाऽत्र हेतुः। . एकाक्यहं चेत् समुपाददे तामेको हि तिष्ठामि न संशयोत्र ॥ . श्रावक भैरोंजी बोले-'भगवन् ! आपकी श्रद्धा सम्यक है। मैं उसकी सत्यता के लिए कोई हेतु नहीं चाहता । यदि मैं अकेला ही इस श्रद्धान को स्वीकार करता हूं तो फिर मैं अकेला ही रह जाऊंगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।' २२. प्रबोध्य सर्वान् सुलभेन साकमादित्सुरेवास्मि भवत्सुमार्गम् । __स्वामी समाकर्ण्य तदीयभावान्, प्रोचे यथेष्टं कुरु भव्यभव्य ! ॥ __'अतः मैं चाहता हूं कि सभी पौरजनों को सहजता से समझाकर, उन सबके साथ ही आपके मार्ग को स्वीकार करूं ।' आचार्य भिक्षु ने उनके भावों को सुनकर कहा-'भव्य वत्स ! जैसा चाहो वैसा करो।' ५३. इतो ब्रजन्तं प्रतिवासरं तं, पृच्छन्ति पौराः कथमेति तत्र। भिक्षोः ससीमं गमनं त्वदीयं, स्वसम्प्रदायेऽतिसमीक्षणीयम् ॥ - अब वे प्रतिदिन भिक्षु के पास आने लगे। उस समय रास्ते में "पौरजन पूछते-'आप वहां क्यों जाते हैं ? आपका भिक्षु के पास जाना-आना अपने सम्प्रदाय-स्थानकवासी परम्परा में एक आलोच्य विषय बन रहा है।' १४. विधीयते किं प्रतिपाद्यतां तत्, ततः समूहीकृतधामिकेषु ॥ .. समाधिना वादविवादयुक्त्या, प्रयत्यते तद् गदितुं स सज्जः ॥ वे कहते-'आप बताएं । अब मैं क्या करूं?' इतने में वहां लोगों की भीड़ लग जाती। तब वे शान्तभाव से, तर्क-वितर्क से उनको समझाने का प्रयत्न करते। । ८५.ये ये समालोचितचितास्तस्ते ते समस्ता विषयाः क्रमेण । संरक्षितास्तेन विलक्षणेन, पृथक् पृथक् साधुतया विभज्य ॥ जो-जो विषय उन्होंने आचार्य भिक्ष से चर्चित कर समझ लिये थे वे सब विषय उनके स्मृतिकोश में सुरक्षित थे। उन सबका उन्होंने सम्यक् विभाजन कर रखा था।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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