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ग्यारहवां सर्ग
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५४. अच्छामिकायां समुपस्थितं तं विलोक्य साश्चर्यमिदं मावे । भो भोः ! कथं त्वं स्थितवानिदानी मच्छायिकामामिह कल्पते नो ।
उन्होंने देखा कि बाल मुनि खुले आकाश (अच्छायां ) में खड़ा है । उन्हें आश्चर्य हुआ। वहीं खड़े-खड़े उन्होंने कहा - 'वत्स ! तुम खुले आकाश में क्यों खड़े हो ? ऐसे खड़े रहना साधु का आचार नहीं है ।'
५५. सोऽवक् कथं यामि भुजङ्गराजः, पदोः स्थितो मे परिवेष्टनेन । श्रुत्वा चमरकामवाप भिक्षुरचिन्ति चित्ते चकितेन तेन ॥
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आचार्य भिक्षु की बात सुनकर मुनि भारमलजी बोले - आर्यवर्य ! मैं कैसे आऊं मेरे पैरों में सर्पराज लिपट गया है । यह सुनते ही स्वामीजी चौंक पड़े और बिस्मित से होते हुए मन में सोचने लगे
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५६. अहोऽस्य
बालस्य विशालधैर्य महोपसर्गादपि
निष्प्रकम्पः । स्थितो धरायामिव धेर्यशैलो, वा मूर्तिमात्च्छान्तरसो रसेशः ॥
'अहो ! कितना - विशाल धैर्य है इस बालक का जो ऐसे महान उपसर्ग में भी निष्प्रकंप और धरा पर धैर्यरूपी पर्वत की भांति स्थिर है, शांत है । ऐसा लगता है मानो सभी रसों का स्वामी शान्तरस ही मूर्तिमान होकर खड़ा हो ।
५७. प्रोचे तदा तं व्रतिनां मघोना, नवं विधेयं पवनाश ! वासी । नेहेव्यते बच्च वयं निषिद्धास्तिष्ठासवो नो क्षणमात्रमत्र ॥
तब मुनियों के अधिपति आचार्य भिक्षु ने सर्पराज को संबोधित कर कहा - 'सर्पराज ! आप यहां के निवासी हैं। यदि हमारा रहना आपको इष्ट नहीं है और आप यदि निषेध करते हैं तो हम यहां क्षण भर भी नहीं रहेंगे ।'
५८. ततः सतैः
संश्रुतसर्वसारसमङ्ग-लोच्चैः
परमेष्ठिमन्त्रः ।
ससर्प सर्पः परिमुच्य पादौ यथातिभक्तः परिवृत्य वन्धौ ॥
ऐसा कहकर आचार्य भिक्षु ने पूर्वो के साररूप एवं समस्त मन्त्रों में
सर्प को सुनाया । छोड़कर परमभक्त
परम उच्चः परमेष्ठि मन्त्र तथा मंगलपाठ उच्च घोष से उस नमस्कार मन्त्र सुनते ही वह सर्प मुनि के चरण युगल को की भांति वंदन कर चला गया ।
१. सप्तमी द्विवचन |