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श्रीभिक्षुनहाकाव्यम् ४८. मुहूर्त्तमात्रे दिवसेऽवशेषे, · निरीक्षिते. प्रासुकतामये ।
परम्परारम्भविमुक्तदोष, शास्त्रोपदिष्टविधिमिविचढे॥
४९. बहिःप्रदेशे निशिभारिमालोऽगमत् परिष्ठापयितुं सयत्नः।
गोमुत्रिकावत् परिमृज्य सम्यक्, व्युत्सृज्य तस्य प्रतियातुरेव ॥ ५०. जिहासुरम्तविषमुग्रमुग्रं, गरुत्मताऽऽतङ्कितङ्कितो वा।
शरण्यशुन्यः शरणाभिलाषी, विज्ञाय विज्ञः शरणाय' साधु ॥ "५१. चारित्र्यपावित्र्यसुगन्धवृन्दात्, कि चंदनं चारुतरं प्रबुध्य ।
चन्द्रातपच्छमतया स्वरत्नप्रकाशपुजं प्रकिरन् समन्तात् ॥ ५२. शुक्लोत्तमध्यानधुरीणपादे, . . कषायवद् दैविकसम्प्रयोगात् । नागेन्द्रनाथः किमुतांहिसंस्थः, संवेष्टय यद्वा शिशुवत् स्वपित्रोः॥
(पञ्चभिः कलापकम्) एक मुहूर्त दिन अवशिष्ट रहने पर परिष्ठापन भूमि का प्रतिलेखन किया जाता है। जो स्थान हिंसा आदि दोषों से रहित और शास्त्रोपदिष्ट विधि से विशुद्ध हो, वही स्थान परिष्ठापन योग्य होता है । रात्रि में बालमुनि भारीमलजी प्रस्रवण प्रतिष्ठापन करने के लिए यतनापूर्वक स्थान से बाहर गए । प्रतिष्ठापन भूमी का रजोहरण से प्रमार्जन कर, वहां गोमूत्रिका की भांति परिष्ठापन कर वे स्थान में लौट रहे थे। उस समय एक सर्प मानो अपने अन्तर् में रहे हुए उग्रतम विष को छोड़ने की इच्छा से अथवा गरुड़ के भय से आतंकित या शंकित होता हुआ अथवा शरणशून्य वह शरण प्राप्त करने की इच्छा से उस बालमुनि को शरण देने वाला जानकर तथा उसके चरणों को पवित्र चारित्य की सुगंधी से सुगंधित सुंदर चन्दन की शाखा मानकर, उसमें प्रलुब्ध होकर चांदनी के मिष से अपने मणिरत्न के प्रकाशपुञ्ज को चारों
ओर विस्तृत करता हुआ वह सर्प शुक्लध्यान में लीन मुनि भारीमल के पैरों में अपने दैविक संप्रयोग से वैसे ही लिपट गया जैसे आत्मा के साथ कषाय या पिता के चरणों में बालक ।
५३. समागतोऽतो न कथं स यातश्चित्ते व्यतर्कीति मुनीश्वरेण । उत्थाय तं द्रष्टुमुपागमत् स, वात्सल्यतामूतिरिवार्यबयः॥
सर्प के अवरोध के कारण मुनि भारमलजी आगे नहीं बढ़ सके । आचार्य भिक्षु ने मन ही मन सोचा-अरे ! अभी तक बाल मुनि क्यों नहीं - लौटा ? ऐसा सोचकर वात्सल्य की प्रतिमूर्ति आचार्य वहां से उठे और अपने ' शिष्य को देखने के लिए बाहर (द्वार तक) आए ।