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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३७. अथो शशाङ्कोपि हृतापशङ्कः, प्राचीगृहे स्नातविलिप्तदेहः। कलाभिरच्छाभिरतीवसज्जस्तद्दर्शनार्थ किमरं चकास्ति ॥
तब चन्द्रमा भी समस्त आशंकाओं को छोड़, प्राची दिशा रूप स्नानगृह में स्नान कर, अपने शरीर पर चन्दनादि का लेपन कर सम्पूर्ण कलाओं से सुसज्जित होता हुआ मानो स्वामीजी के दर्शन के लिए शीघ्र ही आकाश में द्योतित होने लगा। ३८. तदर्शनोद्भूतसुमुद्विमूतिर्माता न यान्तः किमु तेन तेन । __ ज्योत्स्नामिषात् सा सकले विकीर्णा, विश्वम्भराऽतो धवला प्रवृत्ता ॥
___आचार्य भिक्षु के दर्शन से चन्द्रमा ने जो हर्ष की विभूति उत्पन्न की थी वह अपने हृदय में समाविष्ट नहीं कर सका तब चन्द्रिका के मिष से उस विभूति को मानो चारों ओर फैला दिया। इसीलिए तो यह समूचा संसार धवलित हो रहा था।
३९. विकल्पयन्ते वसुधास्पृशस्ते, किमष संवास्ति च चण्डरोचिः ।
भावानगारस्य यदस्य दृष्टेरचण्डरोचिः समभूत् प्रशान्त्या ॥ . जब चन्द्रमा का उदय हुआ तब (उसको कुछ-कुछ लाल देखकर) लोग ऐसी कल्पना करने लगे -क्या यह वही चण्डरोचि--सूर्य है जो अभी-अभी अस्त हुआ था ? लगता है, इन भाव अनगार के दर्शन से यह अचण्डरोचिः एवं प्रशांत-सा दिखाई पड़ रहा है । ४०. द्रष्टुं किमेतं नतमस्तकाया, ऐन्द्रमा हलोकार्पितचान्द्रपौण्ड्रः । सस्तो धियाऽगोचरवायुवेगः, प्रोड्डीयमानो गगने स एव ॥
स्वामीजी के दर्शन के लिए नमन करती हुई इन्द्राणी के भाल पर स्थित कपूर का गोल तिलक नीचे गिर गया हो और वही तिलक अलक्ष्य वायु वेग से उड़ता हुआ मानो चन्द्रमा के रूप में नजर आ रहा हो।
४१. सुधा सदाऽऽशात् परिनिष्ठिता या, सुधाशनेभ्यस्तदभीप्सितेभ्यः। अयं सुधासूरभवत् सुधाया, अक्षीणकुम्भो हि यतः प्रभावात् ॥
निरन्तर अमृतपान करने से अमृत समाप्त हो गया था तब अमृत की इच्छा करने वाले देवताओं के लिए महानुभाव (आचार्य भिक्षु) के प्रभाव से यह चन्द्रमा ही अक्षय अमृतकुण्ड बन गया था। ४२. दृष्टव से नन्तुमुवस्तमिन्द्रश्छत्रं विदण्डं पवमाननुन्नम्।
यद् वाञ्चलक्षम्याः स्फुरदात्मवर्शो, यद्वा सुधापात्र मिवेश मेवः ॥ १. इङ्ग-चलत् ।