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श्रीमिक्षुमहाकाव्यम्
तब सुकृत के जगत् को उद्योतित करने वाले एवं अपने से भी उदात्त अतिशययुक्त भिक्षु को देखकर सूर्य प्रकाश समूह के मिष से अन्तःस्थित प्रमोद को बिखेरता हुआ अत्यन्त तेजस्वी बनकर अपनी हजारों किरणों को एकत्रित कर आकाश के मध्य स्थित हो गया । वह युगतारक पुरुष के चरणयुग्म का स्पर्शन करने के लिए उत्कंठित हो रहा था ।
१७. संस्पृश्य पादाब्जयुगं तदीयं, मुखारबिन्दं प्रविलोक्य लोक्यम् । तस्मात्त्वतृप्तो जगतां शरण्यान्, महामुनीन्द्रादतिदुर्लभाच्च ॥
उन महापुरुष के चरणयुग्म का स्पर्शन कर सूर्य उनके दर्शनीय मुखारबिंद को देखकर जगत् के शरणभूत एवं अति दुर्लभता से प्राप्त होने वाले उन महामुनि के दर्शन से तृप्त ही नहीं हो रहा था ।
१८. परन्तु खिन्नो द्विषतां प्रचारात्, स्थेयं न मेऽत्रेति विचिन्त्य तूर्णम् । मन्दादरं तान् परिवर्शयन् स, यियासुरस्ताचलमूलचूलम् ॥
परन्तु विद्वेषियों के जघन्य प्रचार से मानो उसने खिन्न होकर सोचा -अब मुझे यहां नहीं रहना चाहिए। ऐसा सोचकर वह शीघ्र ही उन विद्वेषियों का अनादर करता हुआ अस्ताचल पर्वत की मूल चूला पर जाने का इच्छुक हो गया ।
१९. कोपादिवार क्तमुखारबिन्दो, वश्यान् वयस्थान् व्यवसायशीलान् । मरीचिपुत्रानिव कान्तिपुव्या, पितेव तस्मात् स समाजुहाव ॥
जैसे पिता अपने अनुशासन में रहने वाले व्यापार कुशल तरुण पुत्रों को विद्रोहियों के भय से प्रवास से बुला लेता है, वैसे ही सूर्य भी मानो विद्वेषियों के प्रचार से कुपित होकर अपना मुख अरुण करता हुआ अपने वश में रहने वाले एवं व्यवसाय करने वाले अपने तरुण किरणों रूप पुत्रों एवं कांतिरूप पुत्रियों को बुला लिया अर्थात् अपने में समेट लिया ।
२०. कलङ्कितानां समयोऽद्य यद् वा, तदाश्रितानामकलङ्कितोऽहम् । श्रेयान्नवासस्त्वितियामि यस्मात् संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ।
सूर्य ने सोचा - अभी कलङ्कितों का अथवा उनके आश्रित रहने वालों का समय है, ऐसी स्थिति में मेरे जैसे अकलङ्कित का यहां निवास करना श्रेय नहीं है, इसीलिए मैं जा रहा हूं। क्योंकि संसर्ग से ही दोष एवं गुण उत्पन्न होते हैं !