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ग्यारहवां सर्ग २१. निजात्मनेऽसत्यदलं विहातुर्दीपान्तरेप्यस्य समोऽस्ति किं नो। गवेषयामीति विचारणाभिस्त्विषांपतिर्याति परान्तरीपम् ॥
अथवा अपने आत्महित के लिए असत्य पक्ष का त्याग करने वाले इस भिक्षु जैसा कोई महापुरुष दूसरे द्वीप में है या नहीं इसका अन्वेषण करूं-ऐसा विचार कर मानो सूर्य अन्य द्वीप में चला गया। २२, ततोम्बरं तिग्मरुचा व्यमोचि, सायं सहायातिगमैक्ष्य किं वा।
लुलुण्ट लुण्टाकवरः प्रदोषचौरो हि नीत्वाऽस्तगिरेगेंहान्तः॥ ___ जब सूर्य ने आकाश को छोड़ा तब उस संध्या के समय में उसका कोई भी सहयोगी नहीं है, ऐसा देखकर मानो वह लुटेरा प्रदोष रूप चोर उस सूर्य को अस्ताचल पर्वत की गुफा में ले जाकर लूट लिया। २३. अदृश्यभावं प्रगतः पतङ्गो, निजप्रतीचीदयिताग्रहेण । पत्या प्रतीच्याः सुमनोहरत्वात्, किमेष कुत्राप्यपलापि पावें ॥
जब सूर्य अदृश्य हो गया तब पश्चिम दिशा को वह सूर्य अत्यन्त मनोहर लगा, इसीलिए पश्चिम दिशा का स्वामी अपनी प्रतीची रूप स्त्री के आग्रह से उस सूर्य को अपने पास में कहीं छिपा कर रख लिया ।
२४. सायं शकुन्ता हतभक्षणास्तत्, प्रदोषतो नीडसनीडभाजः। कोलाहलन्तो नभगं सगोत्रं, दिदृक्षयाऽगेष्विव तस्थुरच्चैः ॥
सायंकाल के समय सभी पक्षी अपने-अपने नीड में आ गए । वे खान-पान का परिहार कर कोलाहल करने लगे और अपने सगोत्री' सूर्य को देखने की इच्छा से ऊंचे वृक्षों पर जा बैठे । २५. तदर्शनेनैव बभूव सन्ध्या, रागैरवन्ध्याऽतिशविचित्रः।
क्षणेन तद्वेषिविलोकनेन, विरागतां तां प्रगता प्रखिन्ना ॥ . उस अस्तंगत होते हुए सूर्य को देखने मात्र से उस संध्या ने अतिशय विचित्र लालिमा को धारण कर लिया । परन्तु अगले ही क्षण सूर्य के विद्वेषी चन्द्रमा को देखकर मानो वह खिन्न होती हुई राग रहित हो गई, लालिमा से विहीन हो गई। २६. विलोप्य सान्ध्यं विततं विलासं, तमोभिरने प्रसूतिवितेने ।
वेलां समासाद्य मलीमसाः स्वां, तितिक्षवो नैव परोदये ते ॥
१. सूर्य और पक्षी- दोनों का नाम है- खेचर । इसलिए ये सगोत्री हैं ।