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एकादशः सर्गः
१. अथाभवद् भावमुनीश्वरोऽथ, भावेन वन्द्यो गुरुगौरवेण । श्रीभिक्षु भिक्षु भवनाशकारी, चारित्रचूडामणिरचंनीयः ॥
अब वे महामुनि भिक्षु भाव मुनीश्वर हो गये। वे भव का नाश करने वाले एवं चारित्र के चूड़ामणि भिक्षु भावपूर्वक एवं गुरु के वैभव से वंदनीय तथा पूजनीय बन गए ।
२. व्याप्तश्लथाचारविचारचक्र प्रोत्थापितक्रान्तिविशिष्टपादाः । वृत्तं तदीयं श्रुतपूविणो ये, श्राद्धास्ततस्ते परमप्रसन्नाः ॥
व्याप्त शिथिलाचार एवं विचारों के प्रति क्रांति के विशिष्ट चरण उठाने वाले राजनगरवासी श्रावकगण पूर्व परिचित भिक्षु का समस्त वृत्तांत सुनकर परम प्रसन्न हुए ।
३. निराश्रया आश्रयिणः प्रजाता, गुरोविहीना गुरुवन्त एव । भावी प्रकाशो जिनशासनस्य, सर्वेष्टसिद्धिः समभूदिदानीम् ॥
उन्होंने सोचा—जो आश्रय-विहीन थे वे आश्रययुक्त हो गए । जो शुद्ध गुरु से विहीन थे वे शुद्ध गुरु-युक्त हो गये । अब निश्चित ही जिनशासन प्रकाशवान् होगा । अब हमारी तो सर्व इष्टसिद्धि हो ही गई । ४. नरीनृतच्चन्द्रकि 'चक्रवाला, नदन्नभोम्मः पिव' मिष्टरावा । मिलद्बलाकाकुलकेलिसाना, लीलागतोद्विनितराजहंसा ॥
५. पयोधराधीरसमीरसारा, धाराभिरामा सुरचापवस्त्रा । तडिविलासः किरती प्रमोदं, नत्री भवन्ती परितः स्फुरन्ती ॥
६. धाराहतस्मेरकदम्बपुष्पनेत्रास मुत्फुल्लितमल्लिकाद्यैः । सद्यस्कदीक्षं मुनिपं दिदृक्षुः, किं प्रावृडेतेह' सुभक्तिकेव ॥
(त्रिभिविशेषकम् )
१. चन्द्रकी - मयूर (मयुको बहुलग्रीवो नगावासश्च चन्द्रकी - अभि० ४। ३८५ शेष)
२. नभोम्भः पिव- चातक (अभि० ४।३९५ ) ३. प्रावृडेतेह - प्रावृड् + एता + इह ।