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वर्ण्यम्
आचार्य भिक्षु प्रथम चतुर्मास राजनगर करना चाहते थे, किन्तु समय की अल्पता के कारण उन्हें केलवा चतुर्मास करना पड़ा । चतुर्मास का स्थान 'अंधेरी ओरी' मिला । वह स्थान गांव के बाहर चन्द्रप्रभु के मंदिर में था । उस मंदिर के प्रवेश द्वार पर बहुत बड़ा शिलाखंड लगा हुआ था । ( आज भी वैसे ही है) । वहां झुके बिना 'प्रवेश नहीं हो पाता था । 'अंधेरी ओरी' नाम के अनुरूप वह स्थान पूर्ण अंधकारमय था । पहली रात्री में उस मंदिर का अधिष्ठाता यक्ष • साक्षात् रूप में प्रगट हुआ । इसी यक्ष ने पूर्वरात्री में सर्प के रूप में बाल मुनि भारमलजी के पैरों में लिपट कर अपने अस्तित्व का परिचय दिया था । चातुर्मास सानन्द संपन्न हुआ । इधर जोधपुर में तेरापंथ का नामकरण हो गया । आचार्य भिक्षु ने अपनी व्याख्या के अनुसार उसको स्वीकार कर लिया 1
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