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भरतेश वैभव
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हुआ। वह कहने लगा कि "भगवन् ! चलिये कुछ दूर और ऐसा कह कर भक्ति से आगे बढ़ा ।
इस प्रकार उन मुनियोंके साथ वह चक्रवर्ती अन्तिम द्वारपर्यन्त गया। वहांसे भी उनको छोड़कर आनेकी इच्छा नहीं थी ।
ठीक है ! जो सतत आत्मानुभव करते हैं ऐसे योगरत्नोंको छोड़ कर कौन मोक्षगामी जाना चाहेगा ?
अब भी यह पीछे नहीं जाता है ऐसा समझकर मुनियोंने कहा कि "अब भगवान् आदिनाथ का शपथ है, ठहर जावो" ऐसा कहकर ठह राया । भरतने भी भक्तिपूर्वक उन तपस्वियोंको नमस्कार कर साथ ही अपने दोनों रूपोंको एक बना लिया
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वीतरागी तपस्वियों ने भी उसको आशीर्वाद दिया एवं आकाशमार्ग से विहार कर गये । भरत भी उनकी ओर आँख लगाकर बराबर देखने लगा |
दोनों मुनिवर आकाशमार्ग में जाते समय चन्द्र और सूर्यके समान मालूम होते थे। ठीक है ! वे नामसे भी तो चन्द्रगति और आदित्यगति थे ।
वे जबतक दृष्टिपथमें आ रहे थे. तबतक चक्रवर्ती खड़े होकर बड़ी उत्सुकताके साथ उनको देखते रहे । तदनंतर निराश होकर वहांसे महलकी ओर चले ।
सेबकोने आकर सोनेकी खड़ाऊ लाकर दी । इधर-उधरसे आकर चामरधारी चामर ढुराने लगे। इस प्रकार चक्रवर्ती राज वैभवके साथ महलकी तरफ चले ।
इति मुनिभक्ति संवि
राजभुक्ति संधि
पवित्र है मूर्ति जिनकी, उज्ज्वल है कीर्ति जिनकी, त्रैलोक्यमें पवित्राकार तथा गंभीर जो सिद्ध भगवान् हैं, वे हमारी रक्षा करें ।
राजाधिराज भरत चक्रवर्ती मुनिदानके अनन्तर महलकी ओर आने लगे । उस समय सुन्दर दुपट्टा धारण किये हुए वे ऐसे चलते थे मानो कोई हाथीका बच्चा चल रहा हो। उस समय दुपट्टा हिलाते
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