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भरतेश वैभव
भूलोकमें आहारदान देनेवाले बहुतसे राजा मिल सकते हैं, परन्तु उनमें दान देनेकी युक्ति नहीं । कदाचित् युक्ति हो तो भक्ति नहीं । युक्ति व भक्तिसे युक्त मुक्तिसाधक दाता तुम ही हो ।
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जो सौभाग्य व सम्पत्ति मनुष्यों में मद उत्पन्न करता है, उस मदने तुम्हें स्पर्श भी नहीं किया है। तुम्हें उस भोगसे मूर्च्छा नहीं आई है । इस तरह अनेक प्रकार देवोंने भर की गई । ठीक ही तो है । धर्मात्माओं के धार्मिक गुणपर मुग्ध होकर उनकी प्रशंसा करना धार्मिक पुरुषोंका जातिचिह्न है ।
"धर्म साम्राज्यका चिरकाल पालन करो" इस प्रकार देववाणी करके देवगण अन्तर्धान हुए ।
आद्य चक्रवर्तीके दानकी महिमा अपार है। उपर्युक्त पंच आश्चर्य रूप घटनायें भरतेश्वरके दानके प्रत्यक्ष प्रभावको सूचित करती हैं।
"जिनशरण" शब्द का उच्चारण करते हुए मुनिगण बहाँसे गमन करनेको उठे । उसी समय महाराज भरत भी "हमें आप ही शरण हैं" ऐसा कहकर उनके पीछे ही उठकर चलने लगे ।
भरतको उन मुनिराजोंने आज्ञा दी कि 'तुम ठहर जाओ, अब हम जाते हैं' परन्तु भरतने उनसे सविनय निवेदन किया " आप पधारिये । ऐसा कहकर एकदम अपने दो रूप बना लिया एवं दोनों रूपों से दोनों मुनिराजोंको हाथका सहारा देकर उनके साथ जाने लगा ।
चार आठ गज जानेके बाद मुनियोंने फिर कहा "अब तो ठहर जाओ" "स्वामिन्! थोड़ी सेवा और करने दीजियेगा । आप पधारिये ।" भरतने कहा I
थोड़े दूर जानेके बाद फिर मुनियोंने कहा कि 'अब आगे नहीं आना, ठहर जाओ'। “भगवन् ! आपको उचित है कि भक्तों को आगे चुलाकर उद्धार करें, परन्तु आपलोग हमारा तिरस्कार करके आगे न आनेका आदेश कर रहे हैं। क्या यह आपको उचित है ?" इस प्रकार भरतने विनोदमें कहा ।
भरतकी विनयको देखकर मुनिगण मनमें प्रसन्न होकर जा रहे थे । यह भगवान्का पुत्र ही तो है ऐसा समझकर मनमें विचार करते हुए वे जा रहे थे।
" राजन् ! भोजनको विलंब होता है। जावो, अब तो जावो" ऐसा कहकर मुनि ठहर गये । परन्तु भरत वहाँसे भी जानेको तैयार नहीं