Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[१०६]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[दकारादि
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(३१९५) दरदादिवटी
डालकर मन्दाग्नि पर पिघलावें । तत्पश्चात् अग्निसे (र. रा. सु. । वा. व्या.)
नीचे उतारकर अच्छी तरह घोटें, यहां तक कि वह म्लेच्छं साईपलं प्रोक्तं गुडं स्यात् द्वादशं पलम्।
कज्जलके समान हो जाय । अब इसमें ५ तोले मृत्पात्रे निम्बदण्डेन ताम्रपत्रयुतेन च ॥ शुद्ध हरताल मिलाकर ३ दिन तक घोटें और फिर घर्षणं दिवसं प्रकुर्यात्तु प्रयत्नतः।
उसे कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर ततो द्विषाणमानेन वटिकां भक्षयेभरः॥
उसका मुंह बन्द करके ६ दिन तक बालकायन्त्रमें सर्ववातप्रशान्त्यर्थे दरदादिवटी त्वियम् ॥
पकावें । इसके बाद जब शीशी स्वांग शीतल हो शुद्ध शिंगरफ १॥ पल और पुराना गुड़ १२
जाय तो उसमें से औषधको निकालकर रक्खें ।
जा पल लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर मिट्टीकी खूब ___ यह रस क्षय और खांसी आदि बहुतसे पक्की कूडी में तांबेका पत्र लगे हुवे नीमके सोठेसे | रोगोंको नष्ट करता है। १ दिन तक घोटें ।
(मात्रा--१-१॥ रत्ती) इसे ८ माशे की मात्रानुसार सेवन करनेसे समस्त वात व्याधियां नष्ट होती हैं । | (३१९७) दर्दुररसः ( व्यवहारिक मात्रा २-३ माशे। )
(र. र. स. । उ. ख. अ. १६) (३१९६) दरदेश्वरो रसः
सुश्लक्ष्णतीक्ष्णचूर्णन्तु रसेन्द्रसमभागिकम् । (र. का. धे. । अधि. ३२; वृ. यो. त. । त. ४३)
| काश्चनाररसैघृष्टं दिनमेकं प्रयत्नतः॥ दरदं पञ्चपलिकं पलमेकं बलेस्तथा। | पुनस्तदेकं दिवसं जम्बीराम्बुषिमर्दितम् । मृदुवहिगतां कुर्यात्कज्जलीमञ्जनाकृतिम् ॥ | पुटपकोऽतिसारघ्नः सूतोऽयं ददुराहयः ॥ वलिमान शुद्धताल निक्षिपेत्तत्र बुद्धिमान् ।
अत्यन्त बारीक शुद्ध तीक्ष्ण लोह (फौलाद) पश्चात्खल्वे विनिक्षिप्य त्रिदिनं मर्दयेत्तया॥
का चूर्ण और शुद्ध पारा समान भाग लेकर दोनोंको नियोज्य काचकूप्यान्तु लिप्सायां मृत्तिकाम्बरैः।
एक दिन कचनारकी छालके रसमें और एक दिन सिकतासु पचेद्दहनैः षडहं
जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर टिकिया बनावें और ___ तदनु स्वत एव हिमं दहनात् ।।
उन्हें सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके गजपुट में दरदेश इति क्षयकासहरो
भवतीह रसः सकलामयजित् ।। ५ पल शुद्ध शिंगरफ़ ( हिंगुल) और १ पल
इसके सेवनसे अतिसार नष्ट होता है। (५ तोले ) शुद्ध गन्धक लेकर दोनोंको घोटकर | ( मात्रा-१॥-२ रत्ती । अनुपानकजली बनावें और फिर उसे लोहेके खरल में ! जायफलका पानी।)
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