Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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लेपमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[३९१]
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सर्व सम्मेलयेद्दत्वा घृतं सर्वाच्चतुर्गुणम् ।
इन्हें गायके घृतमें मिलाकर लेप करनेसे पिचुप्लुतं प्रदातव्यं दुष्टवणविशोधनम् ॥ | उपदंशके घाव नष्ट होते हैं। नाडीव्रणहरं चैव सर्वव्रणनिषूदनम् । । (४१८९) पारदादिसर्पिः ये व्रणा न प्रशाम्यन्ति भेषजानां शतेन च ॥ (वै. र. । उपदंश.; वृ. यो. त.। त. ११७) अनेन ते प्रशाम्यन्ति सर्पिषा स्वल्पकालतः ॥ पारदं गन्धकं तालं सिन्दूरं च मनःशिलाम् । ___पारा और गन्धक १-१ भाग लेकर दोनों
ताम्रपात्रे तु सघृते ताम्रेणैव विमर्दयेत् ।। की कजली बनावें तत्पश्चात् उसमें २ भाग मुर्दा- |
| धर्मे दिनैकं मृदितमेतत्कण्डूपदंशजित् ॥ सिंग, ४ भाग कमीला और ज़रा सा नीलेथोथे का चूर्ण मिलाकर घोटें और इसे सबसे ४ गुने धीमें |
पारा, गन्धक, हरताल, सिन्दूर और मनसिल मिला लें।
समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली इस का फाया लगाने से दुष्ट व्रण और नासूर
बनावें । तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियां मिलाशुद्ध होकर भर जाते हैं । जो व्रण अन्य सैकड़ों
कर सबको तांबेके पात्रमें तांबा लगे हुवे सोटेसे औषधों से नहीं भरते वे इस प्रयोगसे स्वल्प
१ दिन घी के साथ धूपमें घोटें । काल में ही नष्ट हो जाते हैं।
यह लेप खुजली और उपदंशको नष्ट (४१८८) पारदादिलेपः
करता है। (यो. र.; वृ. नि. र. । उपदंशा.) | (४१९०) पारिजातादिकल्कः पारदं गन्धकं तालं दरदं च मनःशिलाम् । ( . मा; यो. र. । नेत्ररो.) पृथक्कर्ष द्विकर्ष च मुडदारं सङ्गजीरकम् ।। वल्कलं पारिजातस्य तैलसैन्धवकाभिकम् । विधाय कज्जलीं श्लक्ष्णां मर्दयेत्सुरसारसैः। कफजाताक्षिजशूलग्नं तरुघ्नं कुलिशं यथा ॥ छायाशुष्कां ततः कृत्वा पुनरुन्मत्तजद्रवैः॥ पारिजात ( हारसिंहार ) की छालको पीसविमर्धाऽथ वटी कार्या उपदंशे प्रयोजयेत् । कर उसमें तैल, कांजी और सेंधा नमक मिलाकर गोघृतेन प्रलेपोऽयं व्रणानां रोपणे हितः ॥ लेप करने से कफज नेत्रशूल इस प्रकार नष्ट हो ___ पारा, गन्धक, हरताल, शंगरफ ( हिंगुल ) | जाता है जैसे वज्रपातसे वृक्ष । और मनसिल १-१ भाग तथा मुर्दासिंग और
(४१९१) पिण्डीतगरमूलयोगः शंखजीरा २-२ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण
(ग. नि.। विषचि.) मिला कर सबको १ दिन तुलसीके रसमें घोटकर पिण्डीतगरकमूलं पुष्येणोत्पाटय योजितं देशे। छाया में सुखा लें । तदनन्तर उसे १ दिन धतूरे | मृतमपि दष्टकपुरुषं चालयतीति नो चित्रम् ।। के रसमें घोटकर गोलियां बना लें।
पुष्य नक्षत्र में पिण्डीतगरकी जड़को उखाड़
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