Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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(४२३१) पिप्पल्यादिगुटिका
[ ४०० ]
(४२३०) पिण्डीतगराञ्जनम्
( वं. से.; भा. प्र. । विष. ) पिण्डीतगरकं नेत्रे पुष्येणोत्पाटय योजितम् । चालयत्यत्र नो चित्रं पुरुषं दष्टमृतं खलु ॥ पुष्य नक्षत्र में पिण्डी तगरको उखाड़ यदि कोई रोगी सर्प दंशसे मृतक समान भी हो गया हो तो उसकी आंखों में इसका अंजन लगासे वह सचेत हो जाता है ।
भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
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( यो. र.; वं. से.; यो. त; वृ. नि. र.; वृ. मा. 1 ने. रो. )
पिप्पली त्रिफला लाक्षा लोकं च' ससैन्धवम् भृङ्गराजरसे पिष्टं गुटिकाञ्जनमिष्यते || अर्मं सतिमिरं काचं कण्डूं शुक्रमथार्जुनम् । अजकां नेत्ररोगांश्च हन्यान्निरवशेषतः ||
पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, लाख, लोध और सेंधा नमकका समान भाग चूर्ण लेकर सबको भंगरेके रस में घोटकर गोलियां बनावें ।
इसे आंख में आंजनेसे अर्म, तिमिर, काच, कण्डू, शुक, अर्जुन और अजकाजात इत्यादि नेत्ररोग नष्ट होते हैं ।
(४२३२) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (१) ( वं. से. । नेत्ररो. )
सङ्घप्य पिप्पलीचूर्ण सफेनं कांस्यभाजने । सक्षौद्रं सैन्धवोपेतमञ्जनं शुक्रनाशनम् ॥
पीपल, समुद्रफेन और सेंधा नमकका महीन
१ लोहचूर्णमिति पाठान्तरम् ।
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[ पकारादि
चूर्ण तथा शहद १-१ भाग लेकर सब को एकत्र मिलाकर कांसीके पात्र में ( कांसीकी कटोरी से ) रगड़ें |
इसे आंखमें आंजनेसे फूला नष्ट होता है । (४२३३) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (२) (च. द. | नेत्ररो. ) पिप्पलीं सतगरोत्पलपत्रां वर्तमधुकां सहरिद्राम् । एतया सततमञ्जयितव्यं
यः सुपर्णसममिच्छति चक्षुः ॥ पीपल, तगर, कमलपत्र, मुलैठी और हल्दीका समानभाग मिश्रित महीन चूर्ण लेकर सबको । पानी के साथ घोटकर बत्तियां बनालें ।
इन्हें नित्य प्रति आंख में आंजने से दृष्टि गरुड़ के समान तीक्ष्ण हो जाती है । (४२३४) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (३) (ग. नि. | नेत्र. ) वैदेही श्वेतमरिचनागरं सैन्धवं समम् । मातुलुङ्गरसैः पिष्टमञ्जनं पिष्टकापहम् ||
पीपल, सहेजने के बीज, सांठ और सेंधानमका अत्यन्त महीन चूर्ण समान भाग लेकर सवको बिजौरेके रस में घोटकर अञ्जन बनावें । इसे आंख में आंजनेसे पिष्टक नामक नेत्ररोग नष्ट होता है ।
(४२३५) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (४) (ग. नि. । ज्वरा. ) पिप्पलीलशुनराजिकावचाः
पथ्यया सह जलेन चूर्णिताः ।
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