Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[५१०]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि
नागका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर रक्खें । मज़बूत हाण्डीमें रखकर उसके ऊपर एक प्याला
इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार अदरकके रसके ढक दें और जोड़को अच्छी तरह बन्द करके साथ सेवन करनेसे सन्निपात ज्वर शीघ्र ही नष्ट हाण्डीमें मुंहतक अरने उपलेांकी राख दाब दाब कर हो जाता है।
भर दें और उसके ऊपर थोडासा बारीक पिसा
हुवा सेंधा नमक डालकर दबा दें । तदनन्तर इस (४४४५) प्रतिज्ञावाचको रसः
हाण्डीको चूल्हेपर चढ़ाकर उसके नीचे १ दिन (र. प्र. सु. । अध्याय ८ )
अरने उपलेांकी मन्दाग्नि जलावें । यह ध्यान रखना शुद्धं सूतं भागमेकं तु तालाद्
चाहिये कि हाण्डीमेंसे किसी जगहसे धुवां न द्वौ भागौ चेद्वेदसङ्ख्या शिलायाः । निकलने पावे । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल ताम्रस्यैवं भागयुग्मं प्रकुर्या
होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर पानीके साथ भल्लातं वै वेदभागं तथैव ।।
घोटकर गोला बनावें और उसे पहिलेकी भांति ही अर्कक्षीरैर्भावयेच त्रिवार
हाण्डीमें रखकर एक दिन मन्दाग्नि पर पकावें । कृत्वा चूर्ण कारयेद्रोलकं तत् । जब हाण्डी म्यांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे स्थालीमध्ये स्थापितं तच्च गोल
रसको निकालकर पीसकर सुरक्षित रखें। दत्त्वा मुद्रां भस्मना सैन्धवेन ॥
___इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार खांड अथवा धूमस्यैवं रोधनं च प्रकुर्या
पीपलके चूर्ण और शहदके साथ खिलानेसे सब __च्छाणैर्दद्यात् स्वेदनं मन्दवह्नौ ।
प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं। पश्चात्तोयेनैव भाव्यं च चूर्ण
(४४४६) प्रतिमेषरसः गोलं कृत्वा मन्दवह्नौ विपाच्य ।
(र. र. स. । अ. २५) पश्चादेनं भक्षयेद्वै रसेन्द्रं
ब्राह्मीपलाशयोः काथे रीतिपत्रं विनिक्षिपेत् । वल्लं चै शर्कराचूर्णमिश्रम् ।
दिनद्वयं ततस्तानि पुनस्तेनैव घर्पयेत् ।। तद्वत्कृष्णामाक्षिकेणैव जूति
लघुभाण्डे समादाय चूर्ण कुष्माण्डवारिणा । हन्यादेतत्सर्वदोषोत्थितां वै ॥
| महत्रिवारं कुर्वीत पुटं ककुभवारिणा ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध हरताल २ भाग, | मर्दयित्वा पुटं दद्यादजामूत्रेण भावयेत् । शुद्ध मनसिल ४ भाग, ताम्रभस्म २ भाग और ततोऽप्येकं पुटं दत्त्वा तिस्रस्त्रिकटुभावना ॥ शुद्ध भिलावा ४ भाग लेकर भिलावेको कूटकर | अमर्यजाविडङ्गाऽनिगोजलैरथ भावितः । उसमें अन्य ओषधियोंको एकत्र घोटकर मिला दें। प्रतिमेपः सुसंसिद्धो रसो वल्मीकमृद्रसैः ।। फिर उसे आकके दृधकी ३ भावना देकर उसका बल्लत्रयमितो देयो वल्मीके तस्य मृत्स्न्या । एक गोला बनावें और उसे कपडमिटीकी हुई एक वल्मीकं संविलिप्यैतत्कृमिसङ्घप्रशान्तये ॥
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