Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[५०९]
वातामये श्लेष्मगदेऽसि स्यात
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सेट, मिर्च, पीपल, पुरामृतात्रिफलायुतोऽयम् ॥ शुद्ध बछनाग, कनेरको जड़, कायफल, अकरकरा, सशृङ्गबेरद्रव एष हन्ति
जावत्री और जायफल समान-भाग लेकर प्रथम ससन्निपातं ज्वरमुग्ररूपम् । पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें निजानुपानैनिजपथ्ययुक्तः
अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर सबको सर्वातिसारान् ग्रहणीविकारान् ॥ चित्रकके काथ और अदरकके रसमें ३-३ भावना 'प्रतापलङ्केश्वर' नामधेयः
देकर सुरक्षित रखें। मूतः प्रयुक्तो गिरिराजपुत्र्या ॥ इसके सेवनसे वातादि सर्व दोषज पाण्डुका शुद्ध पारा, अभ्रकभस्म, शुद्ध गन्धक और नाश होता है। शुद्ध बछनागका चूर्ण १-१ भाग, कालीमिर्चका
(मात्रा-६ रत्ती) चूर्ण ३ भाग, लोहभस्म ४ भाग, शंखभस्म ८ भाग और अरने उपलांकी भस्म १६ भाग लेकर
(४४४४) प्रतापाग्निकुमाररस: प्रथम पार गन्धककी कञ्जली बनावें, फिर उसमें
(यो. र. । वात.) अन्य ओपधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको
| पारदं शुल्ब भस्म विषं मरिचनागरम् । एकत्र घोटकर सुरक्षित रक्खें ।
त्रिक्षारं पश्चलवणान्विमर्यादाईजैः ॥ इसमेंसे ३ रत्ती रस अदरकके स्वरसके साथ
काचकूप्यन्तरे क्षिप्त्वा मृदा संलेपयेद्वहिः । देनेसे प्रसूतिवात, दन्तबन्ध और भयंकर सन्निपात;
शनैर्मेद्वग्निना पाच्य बालुकायन्त्रके दिनम् ॥ तथा शुद्ध गूगल, गिलोयका रस, अदरकका रस
स्वाङ्गशीतलमुद्धत्य दशांशं च विषं क्षिपेत् । और त्रिफलाके काथके साथ देनेसे वातव्याधि, | मूक्ष्मचूणे कृतं खल्वे गुञ्जामात्र प्रदापयेत् ।। कफरोग और अर्शका नाश होता है । सन्निपातानिहन्त्याशु आर्द्रकद्रवसंयुतः । ___ इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन करने प्रतापाग्निकुमारोऽयं सर्ववातहरः परः ॥ और पथ्य पालन करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार पारदभस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध बछनाग, कार्ल. और ग्रहणीविकार नष्ट होते हैं ।
मिर्च, सांठ, यवक्षार, सजीखार, सुहागा और
पांचों नमक समान-भाग लेकर सबका महीन चूर्ण (४४४३) प्रतापलङ्कश्वरो रसः (४)
बनाकर उसे १ दिन अदरख के रसमें घोटकर (र. का. धे. । पाण्डु. ८) कपड़मिट्टीकी हुई आतशी शीशीमें भरकर उसे १ रसगन्धकत्र्यूषणविषहयकट्फलकारभम् । दिन बालुकायन्त्रमें मन्दाग्नि पर पकावें । और फिर जातीफलदलं चित्राईजलत्रिकभावितम् ॥ शीशीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे रसको अयं प्रतापलङ्केशः सर्ववातादिपाण्डनुत् ॥ निकालकर उसमें उसका दसवां भाग शुद्र बछ
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