Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसमकरणम् ] तृतीयो भागः।
[५२१] भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें । मेहामयं मूत्ररोग मूत्रकृच्छू तयाऽश्मरीम् ।
और फिर उसमें अन्य औषधेका महीन चूर्ण नाशयेमात्र सन्देहो सत्यं गुरुवचो यथा ।। मिलाकर सबको १ दिन पानके रस में घोटकर पथ्याश्रितं भोजनमादरेण सुरक्षित रखें।
समाचरेभिर्मलचित्तवृत्या । इसके सेवनसे प्रमेह नष्ट होता है। प्रवालपश्चामृतनामधेयो (मात्रा-१-२ रत्ती।)
.. योगोत्तमः सर्वगदापहारी ॥
प्रवाल (मूंगा ) भस्म २ भाग, मोतीभस्म, सूचना
शंखभस्म, शुक्ति (मोतीको सीप ) भस्म और कौड़ी जिन रसोंके नाम 'प्रमेह' शन्दसे
भस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर प्रारम्भ होते हैं उनमें से जो रस यहां न
उसमें सबके बराबर आकका दूध डालकर एक मिलें उन्हें मकारादि रस प्रकरणमें देखना चाहिये वहां वे 'मेह' शब्दसे आरम्भ
दिन घाटें और फिर उसे यथाविधि शरावसम्पुट में होने वाले रसोंमें मिलेंगे।
बन्द करके गजपुट में फूंक दें एवं सम्पुटके स्वांग
शीतल होनेपर उसमेंसे भस्मको निकालकर पीसकर (४४६८) प्रवालपश्चामृतरसः
सुरक्षित रक्खें। (वृ. नि. र.; र. चं.; यो. र. 1 गुल्म.) इसमेंसे नित्य प्रति ३ रत्ती भस्म प्रातः प्रवालमुक्ताफलशमशुक्ति
सायं खिलानेसे आनाह, उदररोग, गुल्म, प्लीहा, कपर्दिकानां च समांशभागम् ।
खांसी, श्वास, अग्निमांद्य, कफ और वातजरोग, प्रवालमत्र द्विगुणं प्रयोज्यं
अजीर्ण, डकारें आना, हृद्रोग, ग्रहणीविकार, अतिसर्वैः समांशं रविदुग्धमेव ॥
सार, प्रमेह, मूत्रदोष, मूत्रकृच्छू और अमरी एकीकृतं तत्खलु भाण्डमध्ये
आदि अनेक रोगोंका नाश होता है। क्षिप्त्वा मुखे बन्धनमत्र योज्यम् । (४४६९) प्रवालप्रयोगः (१) पुटं च दद्यादतिशीतले च
(भा. प्र. | हिक्का.) ___ उद्धत्य तद्भस्म क्षिपेत्करण्डे ॥
प्रवालशात्रिफलाचूर्ण मधुघृतप्लुतम् । नित्यं द्विवारं प्रतिपाकयुक्तं
पिप्पलीगरिकश्शेति लेहो हिकानिवारणः॥ बल्लप्रमाणं हि नरेण सेव्यम् । प्रवालभस्म, शंखभस्म, हर्र, बहेड़ा, आमला, आनाहगुल्मोदरप्लीहकास
पीपल और गेरुका चूर्ण समान-भाग लेकर सबको श्वासाग्निमांद्यान्कफमारुतोत्यान् ॥ | एकत्र मिलाकर रक्खें। अजीर्णमुद्गारहदामयनं
इसे घी और शहदके साथ मिलाकर चाटग्रहण्यतीसारविकारनाशनम् ॥ । नेसे हिचकी नष्ट होती है।
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