Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[५११]
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शुद्ध पीतलके कण्टकबेधी पत्रांको ब्राह्मी और (४४४८) प्रदान्तकलोहम् पलाशके काथमें २ दिन तक डाले रहें और फिर (र. सा. सं.; र. रा. सु. । प्रदर.) उसीमें घोटकर गजपुटमें फूंकें । जब तक भस्म लौहं तानं हरितालं वंगमभ्रं वराटिका । न हो जाय इसी प्रकार पुट देते रहें । तदनन्तर | त्रिकटु त्रिफला चित्रं विडङ्ग पटुपञ्चकम् ॥ उसे पीसकर पेठेके रसमें घोटकर ३ पुट दें; फिर चविका पिप्पली शङ्ख वचा हवुषपाकलम् । १-१ पुट अर्जुनके काथ और बकरीके मूत्रमें | शटी पाठा देवदारु एला च वृद्धदारकम् ।। घोटकर दें। फिर उसे ३ भावना त्रिकुटेके काथकी एतानि समभागानि सञ्चूर्ण्य वटिकां कुरु ।
और १-१ भावना दुब, अजा ( ओषधि विशेष), शर्करामधुसंयुक्तां घृतेन भक्षयेत्पुनः॥ वायबिडंग, चीता और गोमूत्रकी देकर चूर्ण करके रक्तं श्वेतं तथा पीतं नीलं प्रदरं दुस्तरम् । रक्खें।
कुक्षिशुलं कटिशूलं योनिशूलश्च सर्वजम् ।। ___ इसे ९ रत्तीकी मात्रानुसार दीमककी मिट्टीके | मन्दानिमरुचि पाण्डुं कृच्छ्रश्वासञ्च कासनुत् । पानीके साथ खिलाने और उसी मिट्टीका लेप आयुःपुष्टिकरं बल्यं बलवर्णप्रसादनम् ॥ करनेसे कृमियुक्त बल्मीकरोग नष्ट हो जाता है।
लोहभस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध हरताल, वंगभस्म, ( व्यवहारिक मात्रा २-३ रत्ती।)
अभ्रकभस्म, कौड़ीभस्म, सेट, मिर्च, पीपल, हरे,
बहेड़ा, आमला, चीतामूल, बायबिडंग, पांचों नमक, (४४४७) प्रतिश्यायहरो रसः चव, पीपल, शंख भस्म, बच, हाऊबेर, कुठ, कचूर, (रसेन्द्रमं. । प्रतिस्याये)
पाठा, देवदार, इलायची और विधारा; सब चीजें
समान-भाग लेकर एकत्र घोटकर (१-१ माशेकी) सुलभासमगन्धकमूतवरं
गोलियां बना लें। गिरिकणिरसे कृतमर्दनकम् ।
इन्हें शकर, शहद और घीके साथ मिलाकर चपलारसशुण्ठिरसैखिदिनं
सेवन करनेसे लाल, सफेद, पीला और काला मृदितं घणघोणरुजातिहरम् ॥ दुस्साध्य प्रदर तथा कुक्षिशूल, कटिशूल, सर्वदोषज १-१ भाग शुद्ध पारे और गन्धककी कजली योनिशूल, मन्दाग्नि, अरुचि, पाण्डु, मूत्रकृच्छ, में १ भाग तुलसीका वर्ण मिलाकर उसे कोयलके श्वास और खांसीका नाश होता तथा आयु, पुष्टि ग्स और पीपल तथा मटके कायमें 3-3 दिन और बलवर्णकी वृद्धि होती है। घोटकर मुरक्षित बग्ने ।
(४४४९) प्रदान्तको रस:
(भै. र. र. चं.; र. सा. सं.; र. र.; ध.; र. रा. इसके सेवनसे प्रवृद्ध नासारोग भी नष्ट हो |
सु. । प्रदरा.; रसें. चि. म. । अ. ९) जाता है।
शुद्धमूतं तथा गन्धं शुद्धवङ्गकरूप्यकम् । (मात्रा--३ रत्ती ।)
खर्परञ्च वराटश्च शाणमानं पृथक् पृथक् ॥
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