Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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कल्पमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[४०५]
मिरच को पानी में पीसकर लुगदीसी बनावें और | फूलप्रियङ्गु, काली मिट्टी, लोध और सुरमा फिर उसे कपड़े में डालकर निचोड़कर रस निकालें। समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । इसकी नस्य देने से शिरोविरेचन होकर कृमि |
यदि नाक, मुंह, गुदा, योनि और लिंग से नष्ट हो जाते हैं।
रक्त आता हो तो इसे शहद में मिलाकर इसकी उपरोक्त ओषधियां १-१ तोला लेकर पानी | नस्य लेनी चाहिये। के साथ पीसकर कल्क बनावें फिर २ सेर घी में यह कल्क और ६ सेर गोमूत्र मिलाकर पकावें ।
यह एक सिद्ध प्रयोग है। जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें।
(४२५७) प्लाण्ड्वादिनस्यम् इस घी की नस्य लेने से भी कृमि नष्ट हो (हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) जाते हैं। (४२५६) प्रियङ्गवादिनस्यम्
पलाण्डुपानिर्यासं नस्यं नासाम्रजापहम् ।। (यो. र. । र. पि. चि.)
यष्टीमधुमधुयुतं चापि नस्यं पित्तात्रज जयेत् ॥ भियात्तिकालोध्रमञ्जनं चेति चूर्णयेत् । पलाण्ड (प्याज) के पत्तों के स्वरस की तचूर्ण योजयेत्तत्र नस्ये क्षौद्रसमन्वितम् ॥ | अथवा मधुमिश्रित मुलैठी के चूर्ण की नस्य लेने नासिकामखपायुभ्यो योनिमेदाच वेगितम।। से नाक से होने वाला रक्तस्राव ( नकसीर ) बन्द रक्तपित्तस्रवं हन्ति सिद्ध एष प्रयोगराट् ॥ हो जाता है।
इति पकारादिनस्यप्रकरणम् ।
अथ पकारादिकल्पप्रकरणम् (४२५८) पिप्पलीकल्पः
प्रयोज्या मधुसम्मिश्रा रसायनगुणैषिणा । (ग. नि. । ओषधिकल्पा.) दशवृद्धया दशाहानि दशपैप्पलिकं हितम् ॥ पश्चाष्टौ सप्त दश वा पिप्पलीमधुसर्पिषा। वर्धयेत्पयसा सार्द्ध तथैवापनयेत्पुनः । रसायनगुणान्वेषी समामेकां प्रयोजयेत् ॥ जीर्णौषधस्तु भुञ्जीत षष्टिकं क्षीरसर्पिषा॥ विसस्तिस्रस्तु पूर्वा भुस्वाऽग्रे भोजनस्य च । पिप्पलीनां प्रयोगोऽयं सहस्त्रस्य रसायनम् । पिप्पल्यः किंशुकक्षारभाविता घृतभर्जिताः॥ : पिष्टास्ता बलिभिः पेयाः शृता मध्यबलैनरैः॥
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