Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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तृतीयो भागः ।
रसमकरणम् ]
कफातिदुष्टवनेर्नातः परमत्र भेषजं दृष्टम् । हन्यात्तदामवातं ग्रहणीगद्गुल्म शूलरुजः ||
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पीपलामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीतामूल, निसोत और पद्मगुग्गुलु (गूगल भेद, जिसका रंग लाल माणिक्यके समान होता है ) आधा आधा कर्ष; त्रिकुटा ( समान भाग-मिश्रित सांठ, मिर्च और पीपल ) ३॥ कर्ष, सेंधा नमक, सवल (काला नमक) और बायबिडंग १ -१ कर्ष (१४-१ | तोला) और सम्पुटमें भस्म किया हुवा अभ्रक ५ तोले लेकर सबका अत्यन्त महीन चूर्ण बनाकर उसे चिरचिटा (अपामार्ग), अदरक, संभालू, नागरवेलके पान और हड़जोड़ी १० - १० तोले रसमें पृथक् पृथक् घोटकर कमलगे के बराबर गोलियां बना लें।
हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, बायबिडंग, शुद्र भिलावा, कालाभंगरा, गजपीपल, तेजपात, दन्तीमूल, कांटे वाली चौलाईकी जड़, पुनर्नवामूल (साठी), निसोत, चीतामूल और दोनों जीर । इन सबका कपड़छन चूर्ण १-१ क (११--१1 तोला) तथा शुद्ध गन्धक का चूर्ण आधा कर्म एवं अभ्रक भस्म ५ तोले लेकर सबको ४ गुने खड्डे सिरके या चावलोकी कांजी में पकावें । जब पाक तैयार हो जाय तो ठंडा करके आधे आधे माशेकी गोलियां बना
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इसे काञ्जीके साथ सेवन करना चाहिये । कफसे अत्यन्त दुष्ट जरामिके लिये इससे उत्तम अन्य कोई भी औषध नहीं है ।
इसके अतिरिक्त यह संग्रहणी, आमवात, गुल्म और शूलको भी नष्ट करती है 1 (४३२९) पानीयभक्तवटी (७) (व. से. । रसायना.) ग्रन्थिकं त्रिफला चित्रं त्रिवृलोहितकुम्भकम् । एषां कर्द्धकं चूर्णे प्रत्येकं तावदुन्मितम् ॥ sri raj giri fasङ्ग कार्षिकं पृथक् । पलं कृष्णाभ्रकञ्चैवमन्तरदग्ध्वा विनिःक्षिपेत् || शिलायां पेषणं कृत्वा सर्वमेकत्र योजयेत् । शिखर्याक निर्गुण्डी नागवल्यस्थिसंहृता ॥ रसैर्द्विपलिकैरेषां भावयित्वाऽक्षसम्मिताम् । कृत्वैकां भक्षयेत्मातरम्लवारि पिवेदनु || वातश्लेष्मामयान् हन्ति वह्निसादं ज्वरं वमिम् आमवातं जरत्पित्तं वारिभक्तवटी मता ॥
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इन्हें प्रातःकाल काञ्जी साथ सेवन करने से वातकफज रोग, अग्निमांद्य, ज्वर, वमन, आमवात और परिणामशूलका नाश होता है ।
( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती । ) (४३३०) पानीयभक्तवटी (८) (व. से. । रसायना.)
मानन्दोऽश्वकर्णश्च ता मुस्तकं तुणिः । त्रिकटु त्रिफला भृङ्गमपामार्गश्च दाडिमम् ॥ तुम्बीबृहतिका जातीद्वयञ्च शतपुष्पिका । सूर्यावर्त्तस्तालमूली चूर्णमेषाश्च कार्षिकम् ।। कर्पद्वयं विडङ्गानां बलेः पादोनकर्षकम् । गुडूच्यभ्रकमण्डूरान् प्रत्येकं वेदकार्षिकान् ।। सुचूर्णमाकं वस्त्रपातितं काञ्जिके क्षिपेत् । अम्ले पयसि वा पश्चादुद्धरेत्पश्च मेऽहनि । निर्वापयेच मण्डूरं त्रिफलाया रसे शुभे । सूर्यावर्तसे वाऽथ चोभयत्र च वा भिषक् ॥
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