Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रसप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[४२९]
-
शुद्ध स्वर्णके पत्रोंको कई दिन तक घोटकर एक जायफल, जायत्री, लौंग, केसर, दालचीनी, जीव करके उसमें उपरोक्त मिश्रण मिलाकर सबको | इलायची, तेजपात, नागकेसर, सेठ, पीपल, कालीसात दिन मूलीके रसमें घोटकर शरावसम्पुटमें बन्द | मिर्च, चीता, पीपलामूल, शतावर और बंसलोचनका करदें और उसे बालुकायन्त्रमें रखकर एक दिन कपड़छन चूर्ण ४-४ तोले तथा लोहभस्म, अभ्रकतीमाग्नि पर पका । जब स्वांग शीतल हो जाय | भस्म, ताम्रभस्म, बंगभस्म, पारदभस्म और सीसा तो औषधको निकालकर पीस लें।
भस्म ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर (यदि स्वर्ण कच्चा हो तो मूलीके रसमें पानके रस अथवा शहदमें घोटकर २-२ माशेकी घोटकर एक दिन और पकावें।)
गोलियां बना लें। इसे धी और शहदके साथ सेवन करनेसे
इसे यथोचित मात्रानुसार उष्ण दूधके साथ जरा (बुढ़ापा) और समस्त रोगोंका नाश होता है।
सेवन करनेसे सप्तधातु, बल, बुद्धि, कान्ति, रुचि (४२९६) पत्रामृतरसः (११)
और अग्निकी वृद्धि तथा कफरोगांका नाश होता है। (व. से. । रसायन.)
इसके सेवनसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण करती जातीफलं जातिपत्रं लवर केसरं तथा । है और नपुंसक पुरुषमें पुरुषत्व आ जाता है। चातुर्जातकण्ठचौ च पिप्पली मरिचानि च ॥ इसे १ वर्ष तक सेवन करनेसे मनुष्य जरा चित्रकं पिप्पलीमूलं बरीमूलन्तु वैशनम् ।
व्याधिरहित हो जाता है। सर्व पिष्टा सुमुक्ष्म वाससा परिशोधयेत् ॥ । (४२९७) पञ्चामृतरसः (१२) लोहवणे तथाघ्रश्च ताम्रभस्म च वाकम् ।
(ग. नि. । परिशिष्ट चू.) रसराजा नागा चूर्णस्यादै प्रयोजयेत् ॥ कर्ष रसाद गन्धकस्तथैव नागवल्लीरसेनैव हययवा माक्षिकेण च ।
विमर्थ खल्वेऽभ्रकमेव तावत् । गुटिका तत्र संकार्या माषद्वयप्रमाणिका ॥ दद्यात्तथा ताप्यमयोरजश्च दोषमग्नि बलं वीक्ष्य यथोक्तं भक्षयेदवुषः। | गन्येन चाज्येन विमृश्य किश्चित् ।। गोदुग्धस्यानुपाना खुष्णं चैव विशेषतः॥ पात्रे मन्द बहिना ज्वालयेत्तबर्दनं सप्तधातूनां वीर्यदिवलपदम् ।
द्यान्मात्रां रक्तिकैकपदया। बल्लभाकान्तिरुचिरमग्नेः सन्दीप्तिकारकम् ॥ यावन्माषो नाधिक मानवेभ्यः कफरोगहरश्चैव बुद्धिज्ञानस्पकारणम् ।
कृत्वा बहनेर्दीपनं हन्ति रोगान् । बन्ध्या च लभते गर्भ षण्ढोऽपि पुरुषायते ॥ | पाण्डुप्लीहोन्माददुर्नाममेहान् नपुंसको थाति पुंस्त्वं रामाः कामयते शतम् । पित्तं साम्लं सातिसारं ज्वरश्च । वज्रकायः शुचितुर्दिव्यदृष्टिस्तु जायते ॥ सद्यः शूलान् त्वग्रहण्यामयं च जराव्याधिविनिर्मुक्तो वर्षसेवी यदा भवेत् ॥ । सथैव रोगान् खलु सूतिकायाः ॥
For Private And Personal Use Only