Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि
(४१३३) पृथ्वीसारतैलम्
(४१३५) प्रपौण्डरीकार्य तेलम् (२) _ (भै. र.; च. द. । कुष्ठा.) (मै. र.; आ. वे. वि.; . मा.; वं. से. । क्षुद्र रो.) चित्रकस्याय निर्गुष्टया हयमारस्य मूलतः । | मपौण्डरीकमधुकपिप्पलीचन्दनोत्पलैः । नाडीच वीजाद विषतः काबिपिष्ट पल पलम्॥ कार्षिकैस्तैलकुडवस्तैदिरामलकीरसः ॥ करतेलाष्टपल कानिकस्य पलं पुनः। साध्यः स प्रतिमर्शः स्यात् सर्वशीर्षगदापहः ॥ मिश्रित सूर्यसम्पर्क तैलं कुष्ठवणाम्रजित् ॥
कल्क-पुण्डरिया, मुलैठी, पीपल, सफेद___ चीतामूल, संभाल की जड़, कनेर की जड़, चन्दन और नीलोत्पल १३-१४ तोला लेकर पानी नाहीच बीज और मीठातेलिया (बछनाग) ५-५ | के साथ महीन पीस लें। तोले लेकर सब को काजी के साथ पीस लें।
४० तोले तिल के तेल में यह कल्क, ८० फिर ४० तोले करखतैल में ५ तोले काली और
तोले आमले का रस (और ८० तोले पानी) उपरोक्त कल्क मिलाकर उसे धूप में रख दें । जब
मिलाकर पकावें । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो जलांश सूख जाय तो तेल को छान लें।
छान लें। इस.की मालिश से कुष्ठ, व्रण, और रक्तदोष
इस की नस्य लेने से समस्त शिरोरोग नष्ट दूर होते हैं।
| होते हैं। (४१३४) प्रपोण्डरीका तैलम् (१) (च. द. । प्र. शो.)
(४१३६) प्रमेहमिहिरतैलम् प्रपोटरीकं मधुर्क काकोल्यो द्वे सचन्दने ।
(भै. र. । प्रमेह.) सिदममिः समं तैलं तत्परं व्रणरोपणम् ॥ शतपुष्पा देवकाष्ठं मुस्तकश निशाद्वयम् ।
काय-पुण्डरिया, मुलैठी, काकोली, क्षौरका- मूळ कुष्ठं वाजिगन्धा चन्दनद्वयरेणुकम् ॥ कोली, लाल चन्दन और सफेद चन्दन । सब कटुकी मधुकं रास्ना त्वगेला ब्रह्मयष्टिका । चीजें समान भाग मिश्रित ४ सेर लेकर, कूटकर चविका धान्यकं वत्सं पूतिकागुरुपत्रकम् ।। सबको ३२ सेर पानी में पकावें। जब ८ सेर | त्रिफला नालिका बाला बला चातिवला तथा। पानी शेष रहे तो छान लें।
मञ्जिष्ठा सरलं पद्म लोधं मधुरिका वचा ॥ कल्क-उपरोक्त ओषधियां समान भाग अजाजी चोशीरजाती वासा तगरपादुका । मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर सब को पानीके एतेषां कार्षिकैर्भागैस्तैलमस्थं विपाचयेत् ॥ साथ पीस लें।
शतावर्या रसं तुल्यं लाक्षायाश्च चतुर्गुणम् । विधि-२ सेर तिल के तेल में यह काथ | मस्तु लाक्षारसैस्तुल्यं क्षीरं तुल्यं प्रदापयेत् ॥ और कल्क मिलाकर काय जलने तक पकावें। वैरेतैः पचेत्तैलं गन्धं दक्वा यथाक्रमम् ।
यह तेल लगाने से व्रण भर जाते हैं। 'एतलेलवर श्रेष्ठमभ्यवान्मारुतापहम् ।।
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