Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चूर्णप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[३१३]
(३९८८) प्रसारिणीचूर्णम्
__फूलप्रियगु, काली मिट्टी, लोध और सुरमा (वै. म. र. । पटल ७) ; समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे १ जलेन नालिकेरस्य पिबेत्मातः प्रसारणीम् ।। दिन बासेके रसमें घोटें । मूत्रकृच्छूविनाशाय शर्करापातनाय च ॥ इसे वासेके रस और शहदके साथ चाटने
प्रातःकाल नारियलके पानीके साथ प्रसारणी- से नाक, मुंह, गुदा, योनि और मूत्रमार्ग से का चूर्ण सेवन करनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट होता और निकलने वाले रक्तपित्तका रक्त रुक जाता है। पथरी निकल जाती है।
यदि शस्त्रादिके घावका रक्त बन्द न हो तो (३९८९) प्रियङ्ग्वादिवर्णम् (१)
घावमें यह चूर्ण भरने से वह भी शीघ्र ही रुक (वं. से. । बालरो.)
जाता है। मियनुस्वर्जिकासिन्धुमधुना लेहयेच्छिशुम् । ।
(३९९१) प्रियङ्ग्वादिचूर्णम् (३) क्षीरामयं निहन्त्याशु विडोन युतं कृमीन् ।
( भा. प्र. । वर्णाच.) फूलप्रिया, सजीखार और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
मियधातकीपुष्पं यष्टीमधुजदूनि च । इसे शहदके साथ मिलाकर बालकको चटाने सूक्ष्मचूर्णीकृतानि स्यू रोपणान्यवधूलनात् ॥ से दूधके दोषसे उत्पन्न हुवे विकार नष्ट हो फूलप्रियङ्ग, धायक फूल, मुलैठी और लाख जाते हैं।
समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । यदि इसमें १ भाग बायबिडंगका चूर्ग भी मिला लिया जाय तो उस के सेवनसे कृमि नष्ट
इसे लगाने से घाव भर जाते हैं। हो जाते हैं।
(३९९२) भियङ्ग्वाधं चूर्णम् (३९९०) प्रियङ्गवादिचूर्णम् (२) (वं से. । छर्दि.; वृ. नि. र.; वं. से.; ग. नि.; (ग. नि.; वृं. मा.। रक्तपि.; वृ. यो. त. । त. ७५) यो. र.; वृं. मा. । अतिसा.) वृषस्य स्वरसं कृत्वा द्रव्यैरेमिश्च योजयेत् । । पियवञ्जनमुस्तानि पाययेत्तु यथावलम् । मियमृत्तिकारोधमञ्जनं चावचूर्णयेत् ॥ तृष्णातिसारछर्दिन्नं सक्षौद्रतण्डुलाम्बुना ।। तच्चूर्ण योजयेत्तत्र रसक्षौद्रसमन्वितम् । फूलप्रियंगु, सुरमा और नागरमोथा समान नासिकामुखपायुभ्यो योनिमेदाच वेगितम् ॥ | भाग लेकर चूर्ण करें । प्रस्रवद्रक्तपित्तश्च स्थापयत्येष योगराट् । इसे शहदमें मिलाकर चाटकर ऊपरसे चावयञ्च शस्त्रक्षते रक्तं न तिष्ठेद्विवृतं पुनः ॥ लेांका पानी पीने से तृष्णा, अतिसार और छर्दि तदप्यनेन योगेन तिष्ठत्याश्ववचूर्णितम् ॥ । नष्ट होती है।
इति पकारादिचूर्णपकरणम्।
For Private And Personal Use Only