Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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(३५५५) नीलोत्पलायो लेपः ( रा. मा. । शिरो. )
नीलोत्पलाक्षफलमज्जतिलाजगन्धाः । साङ्गकुसुमैः समपूगवल्कैः ॥
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सम्पिष्य यः प्रकुरुते बहुशः प्रलेपम् । खालित्यमस्य न पदं विदधाति मूर्ध्नि ॥
नीलकमल, बहेड़े की गुठलीकी मज्जा (गिरी), तिल, अजमोद, फूलप्रियङ्गु और सुपारीके छिलके समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर बार बार लेप करनेसे खालित्य ( गञ्ज ) नष्ट हो जाता है होने वाले विसर्प के लिये है । ) (३५५८) न्यग्रोधादिलेप: (२)
और पुनः नहीं होता । (३५५६) नील्यादियोग:
( र. र. रसा. ख. । उपदे. ५ ) नीलीपत्राणि कासीसं भृङ्गराजरसं दधि । लोहचूर्ण समं पिष्ट्वा तल्लेपं केशरञ्जनम् ॥
भारत-भैषज्य रत्नाकरः ।
नीलके पत्ते, कसीस, भंगरेका रस, दही, और लोहचूर्ण समान भाग लेकर पीसकर लेप करनेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं।
( यदि लेप गाढ़ा हो तो उसमें भंगरेका रस अधिक मिला लेना चाहिये । बालोंपर लेप करके ऊपरसे अरण्ड या केलेका पत्ता बांध देना चाहिये और दूसरे दिन लेप धोकर तैल लगा देना चाहिये ! )
[ नकारादि
लक्ष्णपिष्ठैर्यथालाभ शिशोः कार्ये प्रलेपनम् । सदाह रागविस्फोट: वेदनाव्रणशान्तये ||
(३५५७) न्यग्रोधादिलेप: (१)
(वं. से. 1 बाल. ) न्यग्रोधोदुम्ब रोश्वत्थलक्ष वेतसजम्बुजैः । त्वर्यष्टयाहममिष्ठाचन्दनोशीर पद्मकैः
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बड़, गूलर, अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष ), पिलखन, बेत, और जामन; इनकी छाल तथा मुलैठी, मजीठ, लाल चन्दन, खस और पद्माक । इनमें से जितनी चीजें मिल सकें वह सब समान भाग लेकर महीन पीसकर लेप करनेसे बालकके दाह, सुर्खी, विस्फोटक और वेदना युक्त व्रण नष्ट होते हैं ।
(यह योग बालकोंके शिर तथा बस्ति प्रदेश में
(वृ. नि. र.; यो. र.; वं. से. । विसर्प. ) न्यग्रोधपादो गुआ' च कदलीगर्भ एव च । तैर्ग्रन्थिविसर्प लेप धौताज्यसंयुतः ।।
बड़की जड़ की छाल ( या जटा ), चींटली ( मतान्तर में पटेर ) और केलेकी मूसलीको महीन पीस कर सौ बार धुले हुवे घृतमें मिलाकर लगाने से प्रन्थिविसर्प नष्ट होता है ।
(३५५९) न्यग्रोधादिलेप: (३)
(बृ. नि. र.; वं. से. । मसू. ) न्यग्रोधप्लक्षमञ्जिष्ठाशिरीषोदुम्बरत्वचाम् । ससर्पिष्कं मसूर्य्यान्तु वातजायां प्रलेपनम् ॥
बड़की छाल, पिलस्बन की छाल, मनीठ, सिरसकी छाल, और गूलरकी छालके समभाग मिश्रित चूर्णको घी में मिलाकर लगाने से वातज सूरिका नष्ट होती है ।
१---' गुन्द्रा' इति पाठान्तरम् ।
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