Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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कपामकरणम् ]
हतीयो भागः।
[२७३]
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फालसा, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, (३७९३) परूषकादिहिमः कायफल, लाल चन्दन, पाक और कुटकी । | (ग. नि. । ज्वरा.) प्रत्येक ओषधि १। तोला लेकर सबको अधकुटा | परूषकमधुकानि काश्मर्यामलकानि च ।
बलाखर्जूरमृद्वीकाशीतपाकीनिदिग्धिकाः॥ इनका शीत कषाय सेवन करने से पित्त- मधूक प्रपौण्डरीकं चन्दनोशीरपद्मकम् । प्रधान समिपात नष्ट होता है ।
एतान्यापोथ्य तुल्यानि वासयेदुत्तमोदके ॥ (३७९१) परूषकादिगणः
शर्करामधुसंयुक्तं प्रातरुत्थाय पाययेत् । (सु. सं. । सू. अ. ३८; वा. भ. । सू. अ. १५)
तेनास्य पित्तंसम्भूतो ज्वरः शिमं प्रणश्यति ॥ परुषकद्राक्षाकटफलदाडिमराजादनकतक
फालसा, महुवा, खम्भारी, आमला, खरैटी, फलशाकफलानि त्रिफला चेति ।
खजूर, मुनक्का, काकोली, कटेली, मुलैटी, पुण्डरिया, परूषकादिरित्येष गणो वातविनाशनः ।
लाल चन्दन, खस और पद्माक । सबको कूटकर
रातको स्वच्छ जलमें भिगो दें और प्रातःकाल मूत्रदोपहरो हपः पिपासानो रुचिपदः ।।
मल छान कर उसमें मिश्री और शहद मिलाकर फालसा, मुनक्का, कायफल, अनार, खिरनी, | सेवन करें। यह काथ पित्तज्वरको शीघ्र नष्ट निर्मलोके फल, सागोनके फल और त्रिफला। करता है।
इन ओषधियोंके समूहको “परूषकादि (३७९४) पर्पटादिकाथः (१) गण" कहते हैं । यह गण वातनाशक, मूत्र- ( च. द.; वृ. नि. र. । वर.; वं. से.; यो. र. । दोषनाशक,हृथ,पिपासानाशक और रुचिवर्द्धक है । छर्दि.; वै. जी. । वि. १) (३७९२) परूषकादियोगः
एक एव खलु पैत्तिकज्वरं
हन्ति पर्पटकृतः कपायकः । (ग. नि. । छZ.)
चन्दनोदकमहौषधान्वितंपरूषकाणि मृद्वीकां मधुकं शर्करां बलाम् ।
श्वेत्तदा किमु पुनर्विचारणा ।। मधूकपुष्पं पदं च मुस्तामलकानि च ॥
पित्तज्वर को नष्ट करनेके लिये केवल पित्तआपोथ्य तानि सर्वाणि प्रक्षिपेत्तण्डुलोदके। पापड़ेका काथ ही पर्याप्त है, यदि उसके साथ चन्दन, शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं पिबेच्छर्दिषापहम् ॥ सुगन्धबाला और सोंठ भी मिला दी जाय तब तो
फालसा, मुनक्का, मुलैठी, मिश्री, खरैटी, मह- कहना ही क्या है। के फूल, कमल, नागरमोथा और आमला । सब (३७९५) पर्पटादिकाथ(२) चीज़ोको पीसकर चावलोंके पानीमें मिलावें और (वृ. नि. र. । ज्य.; शा. सं. : म. ख. अ. २ उसमें मिश्री तथा शहद मिलाकर सेवन करावें । पपेटो वासकस्तिता किरात यन्वयासकः । इसके सेवनसे छर्दि और तृषा नष्ट होती है। प्रियङ्गश्च कृतः काय एष शर्करमा पुनः ।।
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