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भगवान् महावीर
मनुष्य के प्रयत्न से उसमें कभी कोई फेरफार नहीं हो सकता। गौशाला का यही सिद्धान्त इतिहास में “नियतिवाद" के नाम से प्रसिद्ध है। यह सिद्धान्त उसके मस्तिष्क में इतनी दृढ़ता के साथ ठस गया था कि उसके जीवन में फिर परिवर्तनन हो सका ।
और इसी सिद्धान्त के कारण आगे जाकर वह जैन धर्म से भी विमुख होकर अपने सिद्धान्तों का स्वतंत्रता से प्रचार करने लगा। ___इसी मत के कारण हमारे जैन ग्रंथकारों ने गौशाला को अत्यन्त मूर्ख, बुद्धिहीन, और विदूषक के रूपमें बतलाने का प्रयत्न किया है । हमारे खयाल से जिस समय में यह पुराण लिखे गये हैं उस समय के लोगों को प्रवृति कुछ ऐसी बिगड़ गई थी कि, वे अपने धर्म के सिवाय दूसरे धर्म के संस्थापकों की भर पेट निन्दा करने में ही अपना गौरव समझते थे, उनकी दृष्टि इतनी संकुचित हो गई थी कि वे अपने महापुरुष के अतिरिक्त किसी दूसरे को उच्च मानने को तैयार ही न थे और इसी संकुचित दृष्टि के परिणाम स्वरूप हमारे ग्रन्थों में प्रायः सभी अन्य मत संस्थापकों की निन्दा देखते हैं, केवल जैनशास्त्रकार ही नहीं प्रायः उस समय के सभी शास्त्रकार इस संकुचित दृष्टि से नहीं बचे थे। तमाम धर्मों के शास्त्रकारों की मनोवृत्तियां कुछ ऐसी ही संकुचित हो रही थीं। ___हमारे खयाल से जैन शास्त्रों में "गौशाला" को जितना मूर्ख कम अक्ल और उन्मत्त चित्रित किया गया है, वास्तव में वह उतना नहीं था, श्री मद हेमचन्द्राचार्य ने गौशाला की जिन जिन भी चेष्टाओं का वर्णन किया है, उसको पढ़कर तो प्रत्येक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com