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भगवान् महावीर
अब उस सर्वाग सुन्दर शरीर पर बढ़िया राज वस्त्रों के स्थान पर दिगम्बरत्व शोभित होने लगा। जो कोमल शरीर आजतक राज्य की विपुल स्मृद्धि के मध्य में पालित हुआ था । और जिसकी तप्त सुवर्ण के समान ज्योति ने कभी उष्ण समीर का स्पर्श तक नहीं किया था, वही मोहक प्रतिमा आज संयम कफनी से आच्छादित हो गई। संसार के पापों को धो डालने के निमित्त भगवान ने सब पुण्य सामग्रियों का त्याग कर दिया । जिस शरीर की शोभा को संसार कीच में फँसे हुए प्राणी अपना सर्वस्व समझते हैं, उसी को प्रभु ने केश लोच करके विनष्ट कर दी। जिस भोग के क्षणभर के वियोग से ही संसारी लोग कातर हो जाते हैं, उसी भोग को भगवान महावीर ने तिलमात्र खेद किये बिना ही तिलॉजली दे दी। परम सुन्दरी सुशीला पत्नी "यशोदा" प्रिय पुत्री "प्रियदर्शना" जेष्ठबन्धु "नन्दिवर्द्धन" राज्य की अतुल लक्ष्मी इन सबों का त्याग करते हुए उन्हें रंच मात्र भी मोह नहीं हुआ।
दीक्षा ग्रहण किये पश्चात् उसी समय प्रभु को मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह दिन ईसा के ५६९ वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी का था।
भगवान् का भ्रमण । भगवान महावीर के भ्रमण का बहुत सा वृतान्त गत मनोवैज्ञानिकखण्ड में दिया जा चुका है। अतः इस स्थान पर उसको पुनर्वार देने की आवश्यकता न थी। पर कई घटनाएँ ऐसी रह गई हैं जो 'मनोवैज्ञानिक खण्ड' में छूट गई हैं और जिनका दिया जाना यहां आवश्यक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com