________________
भगवान् महावीर
३७६
४. सुखमा दुखमा
४. दुखमा सुखमा ५. सुखमा
५. दुखमा ६. सुखमा सुखमा
६. दुखमा दुखमा उत्सर्पिणी के प्रथम “दुखमा-दुखमा" काल में मनुष्य को आयु बीस वर्ष को और काया एक हाथ लम्बी होती है। इसमें मनुष्य महा दुखी, शक्ति हीन, और निर्लज्ज होते हैं। पाप
और पुण्य की उस समय कुछ भी विरासत नहीं समझी जाती। यह काल इक्कीस हजार वर्षों का होता है । इसमें मनुष्य क्रम से अपना विकास करता रहता है । इक्कोस हजार वर्ष व्यतीत होने पर दूसरे "दुखमा" काल का प्रारम्भ होता है। इसके प्रारम्भ में मनुष्य की आयु कुछ कम और अन्त में बढ़ते बढ़ते सौ वर्ष तक हो जाती है । शरीर भी बढ़ते बढ़ते चार साड़े चार हाथ तक हो जाता है । शक्ति, बल, पाप, और पुण्य के भाव सब बढ़ते रहते हैं । मतलब यह कि प्राणी अपना धीरे धीरे विकास करता रहता है। प्रवृति भी कृपालु होती जाती है, वर्षा, धनधान्य, रोगों की कमी आदि सब बातें कम से बढ़ती जाती हैं । यह काल भो इक्कीस हजार वर्षों का माना जाता है। इसके पश्चात् दुखमा सुखमा काल का पादुर्भाव होता है । इसमें मनुष्य की काया सात हाथ की हो जाती है और क्रमशः बढ़ती रहती है । शक्ति, आयु, बल और प्रकृति की कृपा का और भी
आधिक्य होता जाता है। इस काल में तीर्थकर अवतीर्ण होने लगते हैं। इस काल के समाप्त हुए पश्चात् सुखमा दुखमा काल का आविर्भाव होता है । इसमें मध्य तक संसार कर्म भूमि रहती है। अर्थात् वहाँ तक मनुष्य अपने कमों से अपनी ताकत से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com