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भगवान् महावार
के लिए, गुरुओं के द्वारा प्रजा पर डाले हुए भार को हलका करने के लिए आदर्श से आदर्श त्याग, आत्मभाव और परम सत्य के सन्देश की आवश्यकता थी । यही कारण है कि भगवान् महावीर ने भर जवानी में संयम ग्रहण कर इतने कठिन मार्ग को स्वीकार किया कि जिसकी कल्पना भी आज कल के मनुष्य करने में असमर्थ हैं, इस तीव्र त्याग के प्रभाव से उस समय के गुरुओं में पुनः त्याग का संचार हुआ और वे निर्ग्रन्थ के नाम को सार्थक करने लगे। इस प्रकार एक बार फिर से भारत में त्याग का धर्म पराकाष्ठा पर पहुँच गया ।
पर यह स्थिति हमेशा के लिए स्थिर न रही। भगवान् महावीर के पश्चात् दो पीढ़ी तक अर्थात् जम्बूस्वामी तक तो यह अपने असली रूप में चलती रही पर उनके पश्चात् त्याग की इस चमकती हुई ज्योति में पुनः कालिमा का संचार होने लगा। जम्बूस्वामी के पश्चात् कोई भी ऐसा समर्थ और प्रतिभाशाली नेता न हुआ जो संघकी बागडोर को सम्हालने में समर्थ होता। इधर लोगों की सुख-शीलता पुनः बढ़ने लगी। कुछ साधु कहने लगे, "जिन के आचार का तो जिन निर्वाण के साथ ही निर्वाण हो गया, जिन के समान संयम पालने के लिये जितने शरीर-बल
और जितने मनो-वल की आवश्यकता होती है उतना अब नहीं रहा, उसी प्रकार उच्चकोटि का आत्मविकास और पराकाष्ठा का त्याग भी अब लुप्त हो गया है। इसीलिए अब तो महावीर के समय में मिली हुई रियायतों में भी कुछ और बढ़ाने की आवश्यकता है।" इत्यादि ।
ऐसा मालूम होता है कि धर्म के इसी संक्रमण काल में श्वेता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com