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भगवान महावीर
४६४ कारण की बौद्धों ने इससे अतीव सार्थक शब्द आश्रव को ले लिया है । और धर्म के समान ही उसका व्यवहार किया है । परन्तु शब्दार्थ में, नहीं कारण की बौद्ध लोग कर्म सूक्ष्म पुद्गल नहीं मानते हैं और आत्मा की सत्ता को भी नहीं मानते हैं । जिसमें कर्मों को आश्रव हो सके । संवर के स्थान पर वे आसावाकन्य को व्यवहृत करते हैं। अब यह प्रत्यक्ष है कि बौद्ध धर्म में आश्रव का शब्दार्थ नहीं रहा । इसी कारण यह आवश्यक है कि यह शब्द बौद्धों में किसी अन्य धर्म से जिसमें यह यथार्थ भाव में व्यवहृत हो अर्थात् जैन धर्म से लिया गया है । बौद्ध संवर का भी व्यवहार करते हैं अर्थात् शील संवर और क्रिया रूप में संवर का यह शब्द ब्राह्मण आचार्यों द्वारा इस भाव में व्यवहृत नहीं हुए हैं अतः विशेषतया जैन धर्म से लिये गये हैं। जहाँ यह अपने शब्दार्थ रूप में अपने यथार्थ भाव को प्रकट करते हैं। इस प्रकार एक ही व्याख्या से यह सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्म का कार्य सिद्धान्त जैन धर्म में प्रारम्भिक और अखंडित रूप में पूर्व से व्यवहृत है और यह भी सिद्ध होता है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है।
जैन भास्करोदय सन् १९०४ ई० से उद्धृत ।
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