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भगवान् महावीर
अब हमें इस मत भेद की मूल जड़ पर भी एक दृष्टि डालना चाहिए। इस विषवृक्ष का बीज करीब आज से २०००-२२०० वर्ष पहले बोया गया था। तभी से इसकी जड़ में हठ और दुराग्रह का जल सींच २ कर यह पुष्ट बनाया जा रहा है। यह बात इतिहास सम्मत है कि भगवान महावीर के समय में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य विद्यमान थे। उनको हम "ऋजुप्राज्ञ" के नाम से सम्बोधित करते हुए पाते हैं ऋजुप्राज्ञ साधुओं के चरित्र का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि "ऋजुप्राज्ञ" साधु पञ्चरङ्गी बहु मूल्य रेशमी वस्त्र पहिन भी सकते हैं पर वक्रजड़ साधुओं को ( भगवान महावीर के अनुयायी) तो शक्ति के अनुसार अचेलक ही रहना चाहिए । समुदाय के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन ऋजुप्राज्ञ ले सकते हैं पर वही भोजन व्यक्ति की दृष्टि से भी वक्रजड़ नहीं ले सकते । ऋजुप्राज्ञ राजपिण्ड भी ले सकते हैं पर वक्र जड़ तो उसे स्पर्श भी नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त आहार, विहार, ज्येष्ठ, कनिष्ठ की व्यवस्था और बन्दनादि में ऋजुप्राज्ञ निरंकुश हैं पर वक्रजड़ी को तो गुरु की परतन्त्रता में रहना पड़ता है। इस प्रकार का निरंकुश आचार भगवान् पार्श्वनाथ के ऋजुप्राज्ञ साधुओं का है और इतना कठिन आचार भगवान् महावीर के वक्रजड़ साधुओं का है।
इससे साफ मालूम होता है कि उस समय के पार्श्वनाथ के अनुयायियों का चरित्र बहुत कमजोर हो गया था । यदि त्याग का उद्देश्य आवश्यकताओं को कम करने का है, यदि त्याग, का उद्देश्य निरंकुशता पर संयम करने का है, यदि त्याग का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com