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भगवान् महावीर
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उद्देश्य कष्ट सहन करने का है और यदि त्याग का अर्थ एक नियमित मर्यादा में रहने का है तो हम निर्भीक होकर कह सकते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यों की अपेक्षा भगवान् महावीर के त्याग की कसौटी बहुत उच्च दर्जे की थी । हमारा खयाल है पार्श्वनाथ के समय में ऋजुप्राज्ञ साधुओं की ऐसी स्थिति न थी पर उनके निर्वाण के पश्चात् और भगवान् महावीर के अवतीर्ण होने के पूर्व-ढाई सौ बर्षों में उस समय के आचार हीन ब्राह्मण धर्म गुरुओं के संसर्ग से उन्होंने अपने आचारों में भी सुख शीलता को प्रविष्ट कर दिया। यह बात मनुष्य प्रकृति से भी बहुत कुछ सम्भव है | मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह लुख और सुलभता की ओर सहजही आकर्षित हो जाता है । तो उस समय त्याग का उपदेश देनेवाला कोई नेता विद्यमान न था, दूसरे उन लोगों के सम्मुख नित्यप्रति ब्राह्मणों को विलासप्रियता और सुख शीलता के दृश्य होते रहते थे, क्या आश्चर्य यदि सुखप्रियता के वश होकर उन्होंने भी अपने आचारों की कठिनाइयों को निकाल दिया हो, पर यह निश्चय है कि भगवान् महावीर से पूर्व उनके चरित्र में बहुत कुछ शिथिलता आ गई थी ।
एक
पार्श्वनाथ के पश्चात् क्रमशः भगवान् महावीर हुए उन्होंने अपना आचरण इतना कठिन और दुस्सह रक्खा कि यदि उसके लिए यह भी कहा जाय कि दुनिया के इतिहास में आज तक किसी भी महात्मा का त्याग उतना कठिन न था तो कोई भी अतिशयोक्ति न होगी । गुरुओं के उत्पन्न हुए विलास रूपी पिशाच को निकालने के लिए, आराम की गुलामी को दूर करने
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