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भगवान् महावीर में आते हैं-वे भोग कहलाते हैं, जैसे अन्न, पानो आदि। और जो पदार्थ बार बार काम में आ सकते हैं वे उपभोग कहलाते हैं जैसे-वत्र जेवर आदि। इस व्रत का अभिप्राय है कि इनका नियम करना, इच्छानुसार निरन्तर परिमाण करना । तृष्णा लोलुपता पर इस व्रत का कितना प्रभाव पड़ता है-इससे तृष्णा कितनी नियमित हो जाती है, सो अनुभव करने ही से मनुष्य भली प्रकार जान सकता है। मद्य, मांस, कन्दमूल आदि अभक्ष पदार्थों का त्याग भी इसी व्रत में पा जाता है। शान्ति मार्ग में आगे बढ़ने की जब मनुष्य को इच्छा होती है, तब वह इस व्रत को पालन करता है ।
अतिथि संविभाग अपनी आत्मोन्नति करने के लिये गृहस्थाश्रम का त्याग करने वाले मुमुक्ष 'अतिथि' कहलाते हैं। उनः अतिथियों को, मुनि महात्माओं को अन्न वस्त्र आदि चीजों का जो उनके मार्ग में वाधा न डालें, मगर उनके संयम पालन में उपकारी हों, दान देना और रहने के लिए स्थान देना इस व्रत. का अभिप्राय है। साधु-संतों के अतिरिक्त उत्तम गुण-पात्र गृहस्थों के प्रति भक्ति करना भी इस व्रत में सम्मिलित होता है।
इन बारह व्रतों में से प्रारम्भ के पाँच व्रत "अणुव्रत" कहलाते हैं। इनका अभिप्राय यह है कि वे साधु के महाव्रतों के सामने 'अणु' मात्र हैं-बहुत छोटे हैं। उनके बाद तीन 'गुण व्रत' कहलाते हैं-इनका मतलब यह है कि ये तीन व्रत अणुव्रतों का गुण यानी उपकार करने वाले हैं-उनको पुष्ट करने वाले हैं। अन्तिम चार 'शिक्षाव्रत' कहलाते हैं। शिक्षाव्रत शब्द का अर्थ है-विशेष धार्मिक कार्य करने का अभ्यास डालना।
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