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भगवान् महावीर
३९८ जैन-धर्म को दुनिया के धर्मों में कौन सा स्थान प्राप्त हो सकता है यह जानने के लिये उसका पूर्ण अध्ययन और विवेचन करना आवश्यक है। पर इस छोटे से व्याख्यान में इतनी मीमांसा करना असम्भव है, अतः उसकी कुछ आवश्यक बातों का ही उल्लख करके धर्म के तुलनात्मक विज्ञान-शास्त्र में जैन-धर्म को किस प्रकार का विशेष महत्व मिलता है यह बतलाने का प्रयत्न करता हूँ। • सब से महत्वपूर्ण विषय तो जैन-धर्म में प्रमाण सहित माना हुआ देव सम्बन्धी मत है, इस दृष्टि से जैन-धर्म मनुष्योत्सारी ( नर से नारायण पदवी तक विकास करनेवाला) सिद्ध होता है, यद्यपि वैदिक तथा ब्राह्मण धर्म भी मनुष्योत्सारी हैं तथापि इस विषय में वे जैन-धर्म से बिल्कुल भिन्न हैं, इन धर्मों का मनुष्योत्सारित्व केवल औपचारिक ही हैं क्योंकि उनमें देव किसी मनुष्यातीत प्राणी को माना है, और उसे मन्त्र द्वारा वश करके अपनी इष्ट सिद्धि की जा सकती है, ऐसा माना गया है, पर यह वास्तविक मनुष्योत्सारित्व नहीं है, वास्तविक मनुष्योत्सारित्व तो जैन और बौद्ध-धर्म में ही दिखलाई देता है।
जैनियों की देव विषयक मान्यताएं प्रत्येक विचारशील मनुष्य को स्वभाविक और बुद्धि-ग्राह्य मालूम देंगी, उनके मतानुसार परमात्मा ईश्वर नहीं है, अर्थात् वह जगत् का रचयिता और नियन्ता नहीं है। वह पूर्णावस्था को प्राप्त करनेवाली
आत्मा है । पूर्णावस्था अर्थात् मोक्ष के प्राप्त हो जाने पर वह जगत् में जन्म, जरा और मृत्यु को धारण नहीं करता । इसी से वह वन्दनीय और पूजनीय है। जैनों की यह देव विषयक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com