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भगवान् महावीर
और कहाँ हमारी जैन समाज की आधुनिक कलह प्रियता । किसी समय में जहाँ संसार के अन्तर्गत जैन धर्म की दुन्दुभि बजती थी वहाँ आज हमारा समाज संसार की निगाह में हास्यास्पद हो रहा है।
इस विपरीतता के मुख्य कारणों को जब हम खोजते हैं तो कई अनेक कारणों के साथ २ हमें यह भी मालूम होता है कि जैन साहित्य में विकृति उत्पन्न होना भी इस दुर्गति का मूल कारण है । जैन साहित्य में यह विकृति किस प्रकार उत्पन्न हुई इसके कुछ कारण उपस्थित करने का हम प्रयत्न करते हैं।
दीर्घ तपस्वी महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन थे। दोनों ही महापुरुष निर्वाणवादी थे। दोनों एक ही लक्ष्य के अनुगामी थे। पर दोनों के पथ भिन्न २ थे-दोनों के लक्ष्यसाधन संबधी तरीके भिन्न २ थे । बुद्ध मध्यम मार्ग के उपासक थे। महावीर तीब्र मार्ग के अनुयायी थे । बुद्ध ने अपने मार्ग की व्यवस्था में लोकरुचि को पहला स्थान दिया था, पर महावीर ने लोकरुचि की विशेष परवाह न की । उन्होंने कभी इस बात का दुराग्रह न किया कि "जो मैं कहता हूँ वही सत्य है शेष सब झूठे हैं।" वे इस बात को जानते थे कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिये कई प्रकार के साधन होते हैं इससे साधन भेद में विरोध करना व्यर्थ है । यहाँ तक कि उनके समसामयिक अनुयायियों का लक्ष्य एक होते हुए भी सेवा के मार्ग जुदे जुदे थे। कोई मुमुक्ष निराहारी रहकर अपनी तपस्या को उत्कृष्ट करने का पयत्न करता था, तो कोई आहार भी करता, कोई बिलकुल दिगम्बर होकर विचरण करता था, तो कोई सवस्त्र भी रहता था । कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com