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भगवान् महावीर
रहना पड़ता है वहाँ डाँस, मच्छर वगैरह जीवों का उपद्रव विशेष सम्भव है, इसलिए जो साधु इन कष्टों को सहन न कर सके वह किस प्रकार संयम का पालन कर सकता है। अतिरिक्त इसके जो साधु लज्जा को नहीं जीत सकता उसके लिए भी वस्त्र की आवश्यकता होती है । हाँ, लज्जा को जीतने के पश्चात् अथवा संयम पालन करने की शक्ति हुए पश्चात् वह चाहे तो पात्र और वस्त्र रहित रह सकता है।
विक्रम की सातवीं और आठवीं शताब्दी तक तो साधु लोग सकारण ही वस्त्र रखते थे । वह भी केवल एक कटिवस्त्र । यदि कोई साधु कटिवस्त्र भी अकारण पहनता तो कुसाधु समझा जाता था। श्री हरिभद्र सूरि 'सम्बोधन प्रकरण' में लिखते हैं:
"कीवो न कुणइ लोयं, लजई पडिमाइ जलमुवणेइ । सोवाहणोय हिंडइ बंधइ कड़ि पट्टय मकजे ॥
अर्थात्-क्लीव-दुर्बल साधु लोच नहीं करते, प्रतिमा को बहन करने में लज्जित होते हैं, शरीर का मैल खोलते हैं और निराकारण ही कटिवस्त्र को धारण करते हैं।
इससे मालूम होता है कि उस समय में साधु केवल एक कटिवस्त्र रखते थे। इस सम्बन्ध में आचाराङ्ग सूत्र में कहा गया है।
(१) जो मुनि अचेल (वस्त्रहित) रहते हैं उनको यह चिन्ता नहीं रहती कि मेरे वस्त्र फट गये है दूसरा वस्त्र मांगना पड़ेगा, अथवा उसको जोड़ना पड़ेगा, सीना पड़ेगा, आदि (३६०)
(२) वस्त्र रहित रहने वाले मुनियों को बार २ कांटे लगते हैं, उनके शरीर को जाड़े का, डांसों का, मच्छरों का आदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com