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भगवान् महावीर
पर प्रकृति के ये परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं। एक परिवर्तन विकास कहलाता है और दूसरा विकार ।।
पहले परिवर्तन से देश, जाति और धर्म की क्रमागत उन्नति होती है और दूसरे परिवर्तन से उनका क्रमागत ह्रास होता जाता है । कोई भी धर्म फिर वह चाहे जिस देश और काल का क्यों न हो, कभी कलह का पोषक नहीं हो सकता। कभी वह प्रजा के विकास में बाधक नहीं हो सकता, पर जब उसमें विकार की उत्पत्ति हो जाती है जब उसमें प्रकृति का दूसरी प्रकार का परिवर्तन हो जाता है जब वह समय चक्र में पड़कर वास्त विकता से भ्रष्ट हो जाता है तब उससे उपरोक्त सब प्रकार की हानियों का होना प्रारम्भ हो जाता है। उस समय उसके अग्रगण्य धार्मिक नेता धर्म का नाम दे देकर समाज में कलह का बीज बोते हैं, वे प्रजा को ताकत को घटानेवाले और युवकों को अकर्मण्य बनानेवाले उपदेशों को धर्म का रूप दे देकर प्रतिपादित करते हैं।
आधुनिक जैन साहित्य में समयानुसार उपरोक्त दोनों ही प्रकार के परिवर्तन हुए हैं । उसका तत्त्वज्ञान जहाँ दिन प्रतिदिन विकास करता आया है वहाँ उसके पौराणिक और आचारसम्बन्धी विभागों में विकार का कीड़ा भी घुस गया है। एक ओर तो विकसित तत्त्वज्ञान का रूप देखकर सारा संसार जैन धर्म की ओर आकर्षित होता है और दूसरी ओर विकार युक्त आचार शास्त्र और पौराणिकता के प्रभाव में पड़ कर हम और हमारा समाज वास्तविकता से बहुत दूर चला जा रहा है। अव प्रश्न यह होता है कि, यह विकार कब से शुरू हुआ और बसेकिंसने पैदा किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com