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भगवान् महावार
४०४ अटल बनाए रखता है, वही धर्म व्यक्ति को, जाति को, देश को और विश्व को लाभदायी हो सकता है।
लेकिन इसमें एक बड़ी भयंकर अनिवार्य बाधा उपस्थित होती है। यह बाधा मनुष्य प्रकृति के कारण समाज में उत्पन्न होती है, प्रत्येक मानसशाख-वेत्ता इस बात को भली प्रकार जानता है कि मनुष्य प्रकृतिदोष और गुणों की समष्टि है। जहां उसमें अनेक देवोचित गुणों का समावेश रहता है, वहाँ अनेक असुरोचितदोष भी उसमें विद्यमान रहते हैं। मनुष्य प्रकृति की यह कमजोरी इतनी अटल और अनिवार्य है कि संसार का कोई भी धर्म किसी भी समय में समष्टिरूप से इस कमजोरी को न मिटा सका और न भविष्य ही में उसके मिटने की आशा है । यह कभी हो नहीं सकता कि सृष्टि से ये क्रूर और घातक प्रवृत्तियाँ बिल्कुल नष्ट हो जायँ । प्रकृति के अन्तर्गत हमेशा से ये रही हैं और रहेंगी। विरुद्ध प्रकृतियों की इसी समष्टि के कारण प्राणी वर्ग में और मनुष्य जाति में नित्यप्रति जीवन कलह के दृश्य देखे जाते हैं। ___अतएव यह आशा तो व्यर्थ है कि कोई धर्म इन कुप्रवृत्तियों का नाश कर विश्व व्यापी शान्ति का प्रसार करने में सफल होगा। हाँ इतना अवश्य हो सकता है—यह बात मानना सम्भव भी है कि प्रयत्न करने पर मनुष्य समाज में कुप्रवृत्तियों की संख्या कम
और सत्प्रवृत्तियों की संख्या अधिक हो सकती है । अतः निश्चय हुआ कि जो धर्म मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों का विकास करके सामाजिक शान्ति की रक्षा करता हुआ मनुष्य जातिको आत्मिक उन्नति का मार्ग बतलाता है वही धर्म श्रेष्ठ गिना जा सकता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com