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भगवान् महावीर
ङ्काल को उनके पास गया और कहा, अहो निम्रन्थ ! तुम क्यों ऐसी घोर वेदना को सहन करते हो ? तब वे बोले-अहो, निर्ग्रन्थ ज्ञानपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदेशी हैं। वे अशेष ज्ञान
और दर्शन के ज्ञाता हैं, हमें चलते, फिरते, सोते, बैठते हमेंशा उनका ध्यान रहता है । उनका उपदेश है कि"हे निर्ग्रन्थों ! तुमने पूर्व जन्म में जो पाप किये हैं इस जन्म में छिप कर तपस्या द्वारा उनकी निर्जरा कर डालो, मन वचन कार्य की संवृत्ति से नवीन पापों का आगमन रुक जाता है और तपस्या से पुराने कर्मों का नाश हो जाता है। कर्म के क्षय से दुःखों का क्षय होता है। दुःख क्षय से वेदना क्षय और वेदना क्षय से सब दुःखों की निर्जरा हो जाती है" । बुद्ध कहते हैंनिर्ग्रन्थों का यह कथन हमें रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे। मन को ठोक जंचता है।" ___इससे मालूम होता है कि जैनों की मुनिवृति महात्मा बुद्ध को भी बड़ी पसन्द हुई थी। इस प्रकार गृहस्थ धर्म में उपरोक पांच नियमों का पालन करता हुआ गृहस्थ शान्तिपूर्वक अपने जीवन का विकास कर सकता है और उसके पश्चात् योग्य वय में मुनिवृत्ति ग्रहण कर वह आत्मिक उन्नति भी कर सकता है।
कुछ विद्वान् जैन अहिंसा पर कई प्रकार के आक्षेप कर उसे राष्टीय धर्म के अयोग्य बतलाते हैं, पर यह उनका भ्रम है, उनके आक्षेपों का उत्तर इस खण्ड के पहले अध्यायों को पढ़ने से आप ही आप हो जायगा। __ इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जैन-धर्म अपने वास्तविक रूप में निस्संदेह विश्वव्यापी धर्म हो सकता है ।
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